मन्त्र - विभाग
सद्भावी मन्त्रवित् बन्धुओं ! आइये अब ‘मन्त्र
- विभाग’ के तरफ चला जाय । ‘मन्त्र - विभाग’ भी ‘अविद्या’
के
अन्तर्गत आता है । परन्तु सम्पूर्ण अविद्या को तीन भागों में या तीन श्रेणियों में
रखा गया है जिसमें मन्त्र को प्रथम भाग एवं प्रथम श्रेणी में रखा गया है । यह
विभागीकरण गुण-दोष के आधार पर हुआ है । अविद्या के अन्तर्गत ‘मन्त्र’
को
महत्ता या महान् स्थान प्राप्त है । मन्त्र मानव और देवताओं के बीच सम्बन्ध
स्थापित करने-कराने एवं अभीष्ट कामनाओं की पूर्ति करने-कराने वाला एक मध्यस्थ होता
है जिसके माध्यम से मनुष्य अपने भावनाओं को या कामनाओं को अभीष्ट-देवता के समक्ष
रखता तथा उसके पूर्ति हेतु मन्त्र के माध्यम से ही देवताओं को प्रसन्न करने हेतु
विभिन्न प्रकार के यज्ञ-विधानों, पूजा-पाठ विधानों आदि को ऋषि-महर्षि
आदि तथा प्रकाण्ड आचार्यों, पण्डितों आदि महानुभावों द्वारा
प्रतिपादित किया गया । वे ऋषि-महर्षि मन्त्रवेत्ता थे जिन्होंने मन्त्रों को
प्रतिपादित एवं निष्पादित किया । ऋषि-महर्षि कहने से आप बन्धुगण योग-साधना या
आध्यात्मिक ऋषि-महर्षि न समझ लेना चाहिये । ऋषि-महर्षि में कुछ मन्त्रवेत्ता या
कर्मवेत्ता होते हैं और कुछ आत्मावेत्ता या अध्यात्मवेत्ता होते हैं । जैसे
देवर्षि नारद भी पहले मन्त्रवेत्ता थे और सनक, सनन्दन, सनातन
और सनतकुमार भी आत्मवेत्ता या अध्यात्मवेत्ता थे । बाद में सनत्कुमार से नारद भी
अध्यात्म की उपलब्धि करके अध्यात्मवेत्ता या आत्मवेत्ता बन गये थे । हालांकि
अन्ततः तो वे अध्यात्म से भी पूर्ण सन्तुष्ट नहीं हुये तो श्री विष्णुजी, श्रीरामजी
और श्रीकृष्णजी आदि अवतारी सत्पुरुषों का शरणागत ग्रहण कर या शरणागत होकर भगवद्
भक्ति का एक नमूना या कीर्तिमान ही कायम कर दिया । मन्त्रों से इष्ट सिद्धि तो
अवश्य होती है परन्तु जढ़ी, मूढ़ एवं अहंकारी बनाने वाला सबसे बड़ा
साधन है । मन्त्र साधन - प्रधान एवं कर्म-प्रधान एक जढ़ता एवं मूढ़ता मूलक विधान
है जिसके सहारे जढ़ एवं मूढ़ कार्य करते हैं । मन्त्रवेत्तागण मूर्खाः पण्डिताः का
दोनों का ही अच्छा रोल (पक्ष) अदा करते हैं । मन्त्रवेत्तागण ही समाज में लोगों को
भुक्ति-मुक्ति का उपदेश भी देने लगते हैं । ऐसे ही लोगों के लिये यह
वेदान्त-मन्त्र हैं -----
अविद्यायामान्तरे
वर्तमानाः
स्वयंधीरा
पण्डितम्मन्यमानाः ।
दन्द्रम्यमाणाः
परियन्तिमुढाः
अन्धेनैव
नीयमाना यथान्धाः ।। मुण्डको0 1/2/8 ।।
अर्थात् अविद्या के अन्तर्गत स्थित रहते हुये
अपने आप ही (शिक्षित होने के कारण) अपने आप को ही धीर (बुद्धि को धारण करने वाला
एवं धैर्यवान्) एवं पण्डित (विद्वान्) मानते हुये समाज को वैसे ही ले चलते हैं
जैसे कि अन्धे को मार्गदर्शाने हेतु अन्धा ही ले चलता हो ।। मुण्डको0 1/2/8 ।।
व्याख्याः-
जब अन्धे को अन्धा ही रास्ता दर्शाने वाला या मार्ग दिखलाने वाला मिल जाता
है तब जैसे वह अपने मूल या अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुँच पाता, बीच
में ही ठोकरें खाता, भटकता है, वैसे ही उन
मूर्खों को ही पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि विविध
दुःखपूर्ण योनियों में एवं नरकादि में प्रवेश करके अनन्त जन्मों तक अनन्त
यन्त्रणाओं का भोग करना पड़ता है जो अपने आप को ही बुद्धिमान् एवं पण्डित
(विद्वान्) समझते हैं । शिक्षा-बुद्धि के मिथ्याभिमान में शास्त्र और महापुरुषोें
तथा सत्पुरुषों के बचनों की परवाह न करके उनकी अवहेलना करते हैैं और प्रत्यक्ष सुख
रूप प्रतीत होने वाले भोगों का भोग करने तथा उसके उपार्जन में ही निरन्तर संलग्न
रहने वाले मनुष्य जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ में ही नष्ट करते हैं ।
मुण्डको0 1/2/8 ।। कठोपनि0
1/2/5 ।।
मन्त्रवेत्ता बन्धुओं को क्या कहा जाय, ये
समाज में इतने बड़े प्रभावी रूप में छाये हैं कि दूर्गा-पूजा, मोहर्रम
तथा मन्दिर, मस्जिद, गिरिजाघर तथा
गुरुद्वारा आदि-आदि स्थापना कर-करा कर मूर्तियों एवं सद्ग्रन्थों को आदि स्थापित
करके मन्त्रवित् करके प्राण-प्रतिष्ठा भी कर देते हैं । दूर्गा-पाठ आदि में तो मूर्तियों की स्थापना करते हैं,
प्राण-प्रतिष्ठा
करते हैं, पूजा-करते हैं और बच्चों के खेल की तरह तालाब-पोखरा आदि में भसा भी
देते हैं ।
कितनी जढ़ता एवं मूढ़ता की बात है कि स्वयं
चेतन-आत्मा से युक्त रहते हुये, नहीं परमात्मा या परमब्रह्म या
खुदा-गाॅड को जानना-मानना है तो कम से कम आत्मा या ब्रह्म या नूरे इलाही या डिवाइन
लाईट रूप स्पिरिट या सोल को तो जानना ही मानना चाहिये, परन्तु ये जढ़ी
एवं मूढ़ आचार्य, पण्डित एवं मूढ़-विद्वान् जन जढ़-रूप मूर्तियों
वेद, पुराण, गीता, रामायण, बाइबिल, र्कुआन
एवं गुरुग्रन्थ साहब आदि को ही परमात्मा-खुदा-गाॅड-यहोवा-गाॅड का रूप या समकक्ष
मानते हुये पूजा-पाठ-प्रार्थना, नमाज, प्रेयर, भजन,
कीर्तन,
आरती,
चढ़ावा
आदि करते-कराते हैं । इतना ही नहीं, इसी अभिमान में ये इतना चूर (घमण्डी)
रहते हैं कि महात्मा तो महात्मा हैं अवतारी का भी जबर्दस्त विरोध किये बिना नहीं
मानते हैं । भजन-भाव, पूजा-पाठ, यज्ञ-तप आदि
करते हुये भी डाह-द्वेष, लोभ, अहंकार आदि में
स्वयं मूर्ति हो जाते हैं । इनसे सम्बन्धित चेतन-आत्मा या ब्रह्म या ईश्वर भी इनके
अन्तर्गत अहंकार एवं द्वेष रूप घृणा भाव को देखते हुये इनसे घृणा करने लगते हैं ।
परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या यहोवा या गाॅड या अल्लातआला के साक्षात्
अवतार का तो ये बराबर ही खिल्ली या मजाक उड़ाया करते हैं । इनको कौन समझावें कि
जिन मूर्ति का पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, भोग-राग आदि
करने-लगाने में मस्त रहते हैं वह मूर्तियाँ भी उन्हीं अवतारी सत्पुरुष की रहती है
जिसका ये विरोध करते हैं । ये स्वयं आस्तिक के चोंगा में नास्तिक होते हैं परन्तु
आध्यात्मिक महापुरुषाों के साथ ही साक्षात् परमब्रह्म-परमेश्वर के अवतार को भी
नास्तिक और अहंकारी घोषित करने लगते हैं जो महानतम् आश्चर्य के साथ ही साथ महानतम्
नास्तिकता का भी रूप है ।
सद्भावी मन्त्रवेत्ता बन्धुओं ! आइये अब हम आप
सभी मन्त्रों की पृथक्-पृथक् महत्ता को देखें कि वास्तव में इसकी असलियत या
यथार्थता क्या है ? इतनी अधिकाधिक संख्या में मानव समाज इधर क्यों
उन्मुख हैं ? इसके महत्व का स्तर क्या है और कहाँ तक यह
ग्राह्य और कब यह त्याज्य हो जाता है । इसकी उत्पत्ति कहाँ से होती है और इसका लय
किसमें होता है ? यह सब पृथक्-पृथक् रूप में जाना देखा जाय ।
‘‘ॐ तत्सत्’’ - सर्वोत्तम
मन्त्र
सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! ‘हरि
ॐ तत्सत् ब्रह्म वादिनो वदन्ति ।’ अर्थात्
ब्रह्मवेत्ता लोग ‘हरिः ॐ तत्सत्’ ही बोलते या कहते रहते हैं । हरिः शब्द को ॐ तत्सत् में मिलाकर उसकी गरिमा को कम करना है । यदि यह कहा जाय कि
हरिः परमात्मा वाचक शब्द है जिससे गरिमा बढ़ना चाहिये कम क्यों कहा जाय । तो यहाँ
पर हरिः का ॐ तत्सत् के साथ-साथ उच्चारित करने से ‘ॐ तत्सत्’ की अपूर्णता को जाहिर कर रहा है जबकि यह अपने
आप में परमब्रह्म परमेश्वर या परमात्मा के तत्त्व रूप परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्)
को ही पूर्णतः सम्बोधित करता है । जिसमें किसी भी अन्य आदि की आवश्यकता तो नहीं ही
है । प्रयोग करना अपनी नाजानकारी एवं नासमझदारी का परिचय देना है । ‘ॐ तत्सत्’ - ‘आत्मतत्त्वम्’ का ही
मन्त्रवित् रूप है, जो अपने आप में सा›ोपा› एवं
पूर्ण है ।
‘ॐ तत्सत्’ आत्मतत्त्वम् का
ही पर्यायवाची शब्द रूप है । हालांकि गाॅड (ळव्क्) और अलम् (अलिफ-लाम। मिम्) भी उसी से मिलता-जुलता शब्द-रूप है । ॐ तत्सत् और आत्मतत्त्वम् दोनों में अन्तर मात्र इतना ही है कि ॐ तत्सत् ‘अभिव्यक्त’ रूप तथा ‘आत्मतत्त्वम्’
‘बोधगम्य’
रूप
होता है । ‘आत्मतत्त्वम्’ कथनी की तो बात
ही नहीं है, यह लेखनी की भी बात नहीं । यह कहने और लिखने
में तो संकेेत मात्र है । इसको कह, सुन और पढ़, लिखकर मात्र ?
बोध
नहीं किया जा सकता है तत्त्वज्ञान पद्धति से ही होता है ।
ॐ तत्सत् तीन शब्दों के मेल से बना है
पहला-- ॐ;
दूसरा
-- तत् तथा तीसरा-- सत् । ॐ सृष्टि वाचक
शब्द है । यह ‘ॐ’ ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर
--- तीनों के लिये ही संयुक्त रूप में यानी एकीकृत रूप में प्रयुक्त होता है ।
दूसरे शब्दों में-- ‘ॐ’ वह संकेताक्षर है जिसके उच्चारण मात्र में
ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों का ही एकसाथ उच्चारण मान लिया जाता है । चू.ँकि ब्रह्मा
सृष्टि-उत्पत्ति, श्रीविष्णुजी सृष्टि-संचालक तथा शंकर जी
सृष्टि-संहारक के पद पर पदासीन माने जाते हैं तथा है भी । नारद जी सृष्टि के
महानिरीक्षक के पद पर पदासीन होकर सृष्टि निरीक्षण का कार्य करते-कराते हैं । यहाँ
पर श्रीविष्णुजी से तात्पर्य परमब्रह्म, परमेश्वर के अवतार से नहीं है अपितु
सामान्य रूप में देव श्रेणियोें वाले श्रीविष्णुजी की बात हो रही है । यहाँ पर
अवतारी मानना भूल होगा । इस प्रकार ब्रह्मा-विष्णु तथा महेश तीनों ही ॐ रूप ब्रह्म से उत्पन्न हुये हैं । यही कारण है कि उन तीनों ही महान्
देवों से भी ॐ की महत्ता अधिक मानी गयी है और है भी ।
परमतत्त्व रूप आत्मतत्त्वम् से सोऽहँ से ॐ की उत्पत्ति
होती है तथा ॐ से ब्रह्मा-विष्णु- महेश रूप तीनों ही
महान् देवों की उत्पत्ति होती है ।
‘ॐ’ स्वतः में एक परिपूर्णतम् मन्त्र है । सृष्टि
में तो इसकी महिमा इतनी गायी गयी और गायी जाती है कि जिसको यहाँ कहा और लिखा ही
नहीं जा सकता है । सत् तथा तत् से रहित समाज में ‘ॐ’ मात्र ही
सर्वोत्कृष्ट मन्त्र है । सर्वशक्ति-सत्ता रूप --- सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामथ्र्य
रूप परमब्रह्म परमेश्वर की सम्पूर्ण कार्य-क्षमता अंशों या भागों में विभाजित होकर
कार्य करती अथवा क्रियाशील एवं गतिशील होती रहती है । जिसमें से पहला अंश -- ‘ॐ’ रूप
‘आत्म’ शब्द-रूप आत्म-शक्ति या ब्रह्म-शक्ति या
ईश्वर-शक्ति या दिव्य-शक्ति या स्पिरिट सोल या नूरे-इलाही आदि-आदि उपाधियों से
जाना जाता है । दूसरे अंश में -- ‘तत्’ शब्द-रूप है
जिसके सहायता से योगी, यति, ऋषि-महर्षि, प्राफेट,
पैगम्बर
तथा समस्त आध्यात्मिक महापुरुष ही योग या अध्यात्म का प्रचार-प्रसार करते हैं ।
यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि आत्म-ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म
या दिव्य-ज्योति रूप ईश्वर तो पहले अंश में ही आ गये और समस्त ऋषि-महर्षि आदि
आत्मा या ब्रह्म के ही प्रचारक हैं तो ‘तत्’ क्या है ?
और
कहाँ से आ गया ? यह तर्क तो बहुत ही अच्छा है परन्तु इसको अच्छी
प्रकार से जानने की आवश्यकता है क्योंकि इसी ‘तत्’ शब्द-शक्ति
से अंशावतारी तक भी कार्य करते-करवाते हैं । सामान्य आध्यात्मिक सन्त-महात्मा की
बात कौन करे ? शंकर जी, नारदजी, ब्रह्माजी,
महर्षिगण,
सप्तर्षिगण,
महावीर
जैन, गौतमबुद्ध, मुसा अली, यीशु मसीह,
आद्यशंकराचार्य,
मुहम्मद
साहब, गुरुनानकदेव जी, सन्त कबीर दास, सन्त तुलसीदास
तथा रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द आदि आदि महानुभावों ने भी इस ‘तत्’
के
सहारे कार्य करते-कराते रहे हैं । इसलिये आइये बन्धुओं ! अब ‘तत्’
की
यथार्थता जानी देखी जाय । सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामथ्र्य का पहला अंश-- जो ‘आत्म’
शब्द-रूप
आत्मा थी, प्राण-वायु के सहारे शरीरों में प्रवेश करके ‘अहं’ शब्द
रूप जीव रूप होकर शरीर के माध्यम से कार्य करने तथा भोग भोगने क्रिया-कलाप में लग
गयी । पहले अंश से मात्र सांसारिक कर्म ही हो सकता है चाहे वह कर्म सामान्य हो या
बड़ा से भी बड़ा हो । परन्तु दूसरे अंश के बगैर योग-साधना या अध्यात्म की
क्रिया-प्रक्रिया होना तो दूर रहा, करने की अन्दर उत्प्रेरणा तथा सन्त
मिलन ही नहीं हो पायेगा । यदि मिलन भी होगा तो आप की उस पर विश्वसनीयता ही नहीं हो
पायेगी । जब तक दूसरे अंश रूप-- ‘तत्’ वाला कोई योगी,
साधक,
सिद्ध
या आध्यात्मिक सन्त-महात्मा की मुलाकात नहीं होगी तब तक योग-साधना या अध्यात्म की
यथार्थ उपलब्धि कदापि नहीं हो सकती है । ऐसा ही सृष्टि विधान है कि जब दूसरा अंश
रूप ‘तत्’ शब्द अपने ‘सः’ शब्द
रूपी ज्योति से सन्त-महात्मा के माध्यम से सम्बन्ध स्थापित करेगा, तब
ही उसकी यथार्थ अनुभूति हो पायेगी । तत् ही योग-साधना या अध्यात्म का ‘सः’ रूप विशिष्ट ज्योति रूपा शक्ति है जो
आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं के सम्पर्क से ही उत्प्रेरित तत्पश्चात् उपलब्धि हो पाती
है । इसकी उपलब्धि सन्त-महात्मा की अनुकूलता और प्रसन्नता तथा साधनाभिलाषी के
पात्रता पर आधारित है ।
अतः बन्धुओं प्रथम अंश रूप ‘आत्म’ तथा द्वितीय अंश
रूप ‘तत्’ लौकिक संस्कृत के शब्द नहीं हैं, बल्कि
वैदिक संस्कृत के शब्द हैं । जो यथार्थ ओर शक्ति-सत्ता प्रधान है । शरीर-सम्पत्ति
या व्यक्ति-वस्तु या शिक्षा व्याकरण से सम्बन्धित शब्द नहीं है और न इन सबका विधान
ही ‘आत्म’ और ‘तत्’ शब्द पर लागू
होगा । शिक्षा और व्याकरण तो अनसे अतने नीचे के है। कि तुलना की बात नहीं । ये ‘आत्म’
और ‘तत्’
शब्द
विद्या-क्षेत्र के प्रधान ‘शब्द’ हैं जबकि शिक्षा
और व्याकरण अविद्या के क्षेत्र के तो हैं परन्तु ये उसमें भी प्रधान नहीं, गौण
रूप में प्रयुक्त हैं प्रधान रूप में तो मन्त्र और मन्त्रों का ही संग्रह रूप वेद
है ।
अब आइये बन्धुओं सभी का मूल रूप ‘सत्’
शब्द
पर एक नजर दिया जाय । वास्तव में एक नजर में सत् और दूसरी में धर्म को रख लिया जाय
तो फिर यही सामान्य शरीर सीधे परमात्मा को ही स्वीकार हो जाय । जिसके परिणाम रूप
परमात्मा भी अनन्य सेवा-भक्ति हेतु ऐसी दृष्टिकोण वाले के सीधे स्वीकार कर ले ।
फिर बात ही क्या, जीवन ही सफल हो जाये । कौन ऐसा मानव है जो ‘सत्’
को,
नहीं
यथार्थ रूप में तो कम से कम आभासित रूप में भी न जानता है । सृष्टि के समस्त मानव
मात्र ही आभासित ‘सत्’ में जीवन जीते हंै या जीना चाहते हैं
और यथार्थ या वास्तविक सत्य से मुक्ति और अमरता प्राप्त होते हैं । ‘सत्’
का
वास्तविक या यथार्थ रूप सदा सर्वदा परमआकाश रूप परमधाम या अमरलोक में रहता है ।
आवश्यकता विशेष पर ही युग-युग में भू-मण्डल पर अवतरित होता है । ‘सत्’
का
वास्तव में जब पूर्ण अवतार होता है तब यह अपने सम्पूर्ण शक्ति-सत्ता सामथ्र्य रूप
परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् या ‘ॐ तत्सत्’ रूप
तीनों अंशों से युक्त होता है । अब तीनों ‘ॐ’ ‘तत् ’ तथा ‘सत्’
तीन
पृथक् रूप में एक-एक ही शक्ति सामथ्र्य की ही कल्पना करना दूर है, तो
संयुक्त रूप में उनकी शक्ति-सत्ता सामथ्र्य की कल्पना कौन करे और कैसे करे ?
ॐ तत् तथा सत् रूप तीनों की यथार्थता जानकारी तब ही सम्भव है जब ‘सत्’
का
ही भू-मण्डल पर अवतरण हो । क्योंकि ॐ और तत् इन दोनों
की उत्पत्ति और लय रूप भी वह ‘सत्’ ही होता है ।
इसलिये ‘सत्’ का साक्षात् अवतार ही, आत्म या ॐ को तथा तत् की उत्पत्ति और लय को जनाते, दिखाते तथा बोध
कराते हुये स्पष्टतः परिचय कराते हुये, जानने-देखने वाले को भी ‘आत्मतत्त्वम्’
रूप
अपने तात्त्विक रूप के अन्तर्गत ही दिखला देता है । देखने वाला स्वयं अपने को भी
उसी परमात्मा के अवतार रूप अवतारी के मुख से ही उत्पन्न तथा मुख में ही प्रविष्ट
होते हुये विश्व-विराट रूप को यथार्थतः देखता है । इसमें थोड़ा भी सन्देह नहीं है
।
वास्तव में बन्धुओं ! ‘आत्म’ तो ‘अहं’
रूप
में, शरीर में रहता है, ‘तत्’ सदा ‘सः’
शब्द
रूप में बाहर रहता है तथा सत् वह है जिसका प्रतिबिम्ब रूप अहं तो भीतर तथा जिसकी
दिव्य-ज्योति रूप ‘सः’, शरीर और सत् के मध्य । तथा सत् सभी के
ऊपर रहता है । सत् ही ऐसा होता है जो आभासित रूप में तो सृष्टि में समस्त
प्राणिमात्र के पास परन्तु वास्तविक या यथार्थ या तात्त्विक रूप में परमधाम में
रहता है । इस प्रकार आत्मतत्त्वम् ही यथार्थतः ‘ॐ तत्सत्’
भी
है ।
ॐ ऐं ‘आत्मतत्त्वं
शोधयामि’ नमः स्वाहा
सद्भावी मन्त्र प्रेमी बन्धुओं ! जैसा कि पूर्व
के शीर्षक ‘ॐ तत्सत्’ में देखा गया है
कि ‘ॐ तत्सत्’ आत्मतत्त्वम् रूप शब्द-ब्रह्म रूप बचन रूप गाॅड
रूप अलम् का ही अभिव्यक्त एवं मन्त्रवित् पर्याय रूप है । अर्थात् जो बात ॐ तत्सत् का है वही बात ‘आत्मतत्त्वम्’ का भी; परन्तु
यहाँ पर यह जान लेना अनिवार्य है कि ‘आत्मतत्त्वम्’ रूप, शब्द-ब्रह्म
या परमब्रह्म का ही सूत्रवत् परिचय है न कि मन्त्र । हम तो जिस समय देखे कि जढ़ी
एवं मूढ़ पण्डित, आचार्य एवं शिक्षित विद्वानों में ‘आत्मतत्त्वम्’
शोधयामि के आगे और पीछे दो-दो और शब्दों को जोड़-जोड़ कर
मन्त्र का रूप दे दिये हैं जबकि वास्तव में ‘आत्मतत्त्वम्
शोधयामि’ का अर्थ ‘आत्मतत्त्वम्’ का शोध करता हूँ’
होगा
। यहाँ पर तो बात है शोध करने की, परन्तु मन्त्रवेत्त बन्धु लोग पता नहीं
इसका क्या अर्थ लगा कर पूर्व में ॐ ऐं तथा पश्चात्
में नमः स्वाहा । कहा है या लगाकर मन्त्र
का रूप दे दिया है । वास्तव में उन बन्धुओं का दोष क्या दिया जाय । उन्हें इससे
आगे जानकारी ही क्या है ? उनको क्या पता है कि वास्तव में ‘आत्मतत्त्वम्’
सम्पूर्ण
सृष्टि की सर्व-शक्ति सत्ता का समाहित रूप तथा सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामथ्र्यवान्
परमब्रह्म, परमेश्वर या परमात्मा का ही सूत्रवत् ‘अद्वैत्तत्त्वम्’
रूप
या एकत्वबोध रूप पूर्णब्रह्म है तथा शोधयामि शब्द से स्पष्ट हो रहा है कि इसकी
यथार्थतः तात्त्विक रहस्यों के साथ ही शोध (पूर्णतः एवं मूलतः खोज) करने के तरफ
संकेत है । अर्थात् आत्मतत्त्वम् का तात्त्विक रहस्य वास्तव में क्या है, उसकी
यथार्थतः एवं स्पष्ट खोज करना तथा उसके रहस्य को जान-देखकर हर तरह से परीक्षण करके
उसके सत्यता को उपलब्ध करना ही आत्मतत्त्वम् शोधयामि का अर्थ एवं भाव है । इसे
मन्त्र तो कदापि नहीं कहा जा सकता है । यदि कोई कहता है तो इससे उसके जढ़ता एवं
मूढ़ता का ही परिचय मिलता है और वह घोर अज्ञानी है ।
बन्धुओं ! हमें तो ‘आत्मतत्त्वम्
शोधयामि’ में पूर्व में ‘ॐ ऐं’ को
जोड़ना तथा पश्चात् में ‘नमः स्वाहा’ को जोड़ना कितना
हास्यास्पद लग रहा है कि उसको लिखना भी असम्भव है क्योंकि सूर्य की महत्ता को
बढ़ाने के लिये एक जुगनू (भकजोन्हीं) की ज्योति मिलाते हुये वर्णन करने जैसा भी
नहीं लग रहा है । सूर्य जैसा आत्मतत्त्वम् है तो जुगनू जैसा ॐ ऐं
तथा मूर्खता ही नहीं, महानतम् मूर्खता जैसा नमः स्वाहा है ।
‘ॐ तत्सत्’ को ही गहराई या
गहनता के रूप में मनन-चिन्तन एवं निदिध्यासन रूपी अनुभूति के साथ अवतारी सत्पुरुष
से जान एवं पहचान कर लेने पर आत्मतत्त्वम् की भी यथार्थतः जानकारी एवं पहचान रूप
शोध की प्रक्रिया भी पूरी हो जायेगी । परन्तु यथार्थता तो यह है कि अवतारी
सत्पुरुष उत्कट जिज्ञासु एवं पूर्ण श्रद्धालु से अनन्य सेवा-भक्ति हेतु जब जनायेगा
तब आत्मतत्त्वम् के माध्यम से ही आत्मतत्त्वम् को ही जनायेगा, आत्मतत्त्वम्
को ही दिखलायेगा तथा समस्त सृष्टि के ही सम्पूर्ण मैं-मैं-तू-तू को भी
आत्मतत्त्वम् से ही उत्पन्न तथा तत्त्वज्ञान पद्धति के माध्यम से ही आत्मतत्त्वम्
के बीच या मध्य में जिज्ञासु को भी स्थित रहते हुये अद्वैत्तत्त्वम् रूप एकत्वबोध
कराते हुये मुक्ति और अमरता का बोध स्पष्टतः कर लेता है । इसी के माध्यम से अवतारी
सत्पुरुष का वास्तविक पहचान होता है ।
ॐ हृँ ‘शिवतत्त्वं
शोधयामि’ नमः स्वाहा
सद्भावी शैव बन्धुओं ! जैसा कि पहला शीर्षक ॐ ऐं आत्मतत्त्वम् शोधयामि नमः स्वाहा के अन्तर्गत जिस प्रकार पहले दो
शब्द ॐ ऐं तथा पश्चात् में नमः स्वाहा मनमाने तरीके से जोड़कर अपने जड़ता
एवं मूढ़ता का परिचय दिया था वही हाल यहाँ भी है । ‘शिवतत्त्वम्’
वास्तव
में शोध करने की बात की गयी है कि ‘शिवतत्त्वम्’ क्या है ?
इसकी
उत्पत्ति कहाँ से हुई है अन्ततः यह कहाँ पर लय होता है यानी यथार्थतः शिवतत्त्वम्
का रहस्य क्या है ? इन समस्त जानकारियों को शोध कहेंगे ।
बन्धुओं अब हम लोग यथार्थतः ‘शिवतत्त्वम्’
क्या
है ? इसका शोधित रूप देखेंगे । शिव एक भ्रामक शब्द बन गया है । भ्रम एवं
भूलवश शंकर को ही लोग शिव समझ बैठते हैं ऐसे ही भ्रम एवं भूलवश ‘शिव’
को
लोग शंकर ही समझ बैठते हैं जबकि ये दोनों दो हैं, एक नहीं ।
वास्तव ‘शिव’ को शंकर कहना शिव की यथार्थ जानकारी का नहीं
होना है ऐसे शंकर को शिव कह देना भी गलत ही है । वास्तव में न तो शिव, शंकर
हैं और न शंकर ही शिव है । शंकर जी मात्र एक ब्रह्मा, विष्णु, महेश
रूपी तीन देवों में से एक देव है जो ‘शिवतत्त्वम्’ से सम्बन्धित
होने के कारण महादेव, महेश, महेश्वर आदि आदि उपाधियों से लोग
उन्हें जानने-समझने लगे । अर्थात् शंकर जी मात्र त्रिदेवों में से एक देव हैं जो
सदा-सर्वदा ‘शिवतत्त्वम्’ के ध्यान-समाधि
में लीन रहते है। । आवश्यकता विशेष एवं कार्य विशेष ही शिवतत्त्वम् का ध्यान-समाधि
तोड़ते थे ।
वास्तव में ‘शिवतत्त्वम्’
शिव
और तत्त्वम् दो शब्दों का संयुक्त रूप है जिसमें ‘शिव’ तो
पृथक् रूप है और तत्त्वम् एक पृथक् रूप में । शिव-ब्रह्म-शक्ति का संयुक्त रूप
देता है और तत्त्वम् परमब्रह्म और आदि शक्ति का संयुक्त रूप है । ‘शिव’
सर्वोच्च
शक्ति सत्ता सामथ्र्य रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् का दूसरा अंश पहले के साथ
आत्म $ तत् का संयुक्त रूप होता है । और तत्त्वम् उन दोनों का उद्गम श्रोत
एवं लय रूप परमब्रह्म परमात्मा होता है । आत्म और तत् दोनों ही अहं और सः रूप में
हो गया । नाजानकारी तक सः रूप में ‘आत्म’ भी था परन्तु
तत् रूप वास्तविक ‘सः’ के सम्पर्क से पूर्व का सः बजाय ‘सः’
के ‘आत्म’
रूप
समझ में आने लगा जो शरीर में प्रवेश करते ही ‘अहं’ रूप
में परिवर्तित हो जाता है । परन्तु ‘तत्’ ही लौकिक
संसस्कृत में ‘सः’ रूप में लोक-प्रयुक्त होने लगा । ‘आत्म
और तत्’ । दोनों का संयुक्त रूप ही वास्तव में ‘शिव’ है
और आत्मतत्त्वम् से इनकी उत्पत्ति हुई है इसलिये ये तत्त्वम् जाति के ही हैं । जैसे नामों के पीछे व्यक्ति का जाति भी
उल्लिखित होता है वैसे तो यहाँ पर भी कि ‘शिव’ नाम के पीछे
उनकी जाति तत्त्वम् भी प्रयुक्त होने लगी । जिसका परिणाम हुआ कि एक साथ ही
शिवतत्त्वम् रूप उच्चारित एवं उल्लिखित होने लगा । जो आज भी शिवतत्त्वम् नाम से
प्रयुक्त हो रहा है । शंकर मात्र पहले अंश ‘आत्म’ को
अंशमात्र है परन्तु शिव आत्म $ तत् ही लोक में अहं $ सः
रूप में होकर कार्य करने लगा जो सोऽहँ-ह ँ्सो व ज्योति रूप में जाना-देखा गया । वे
ही शिव है ।
शंकर लिंग नहींऋ यथार्थतः शिव-लिंग
सद्भावी शैव बन्धुओं ! यह प्रकरण भी
शिवतत्त्वम् शोधयामि का ही है । मन्त्रवेत्ता बन्धुओं को क्या कहा जाय । ये अपनी
जढ़ता और मूढ़ता का परिचय दिये बिना मानते ही नहीं हैं अर्थात् इनकी जढ़ता और
मूढ़ता यथार्थता एवं सत्यता के सामने आने पर चिल्ला कर सामने आ जाती है । ये लोग उसको
भी मन्त्रों के अधीन करने बिना नहीं मानते है। जिनसे कि मन्त्रों की ही उत्पत्ति
होती रहती है । खैर जढ़ी और मूढ़ नाजानकार एवं नासमझदार होने के कारण क्षम्य होता
है वही हाल इन बन्धुओं का भी है ।
शिव और शंकर शब्द में ‘शिव’ शक्ति-सत्ता
या सत्ता-शक्ति वाचक होता है जबकि शंकर शब्द व्यक्ति वाचक है । शिव-लिंग रूप में
सर्वविदित जो आकृति है उसको नाजानकार एवं नासमझदार जढि़यों एवं मूढ़ों ने शंकर जी
का लिंग कह-कहा कर घोषित कर-करा दिये हैं और कर-करा रहे हैं । इन जढि़यों एवं
मूर्खों को क्या कहा जाय, कोई इतना नीच शब्द ही नहीं है जिससे इस
सबों को विभूषित किया जाय क्योंकि इतने पवित्र मूर्त रूप को शंकर जी का लिंग कह-कह
प्रचारित-प्रसारित करने जैसे नीच कर्म क्या होगा ? शिव लिंग की
यथार्थता तो जानते नहीं और न जानने की कोशिश ही करते हैं और मनमाना खींच-तान कर
अर्थ, व्याख्या, व्याख्यान देने और प्रस्तुत करने लगते हैं
जिसमें अर्थ का अनर्थ तो होता ही है सद्भाव भी इससे दुर्भाव में परिवर्तित होने
लगता है और उनके अनर्थों के रूप में यथार्थ लाभ की उपलब्धि नहीं होने पर विश्वसनीय
समाप्त हो जाती है । हम (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) तो समस्त
मानव-बन्धुओं चाहे वे जिस जाति या सम्प्रदाय के क्यों न हों, निवेदन
के साथ घोषित तभी करते हैं कि हम किसी के भी विरोधी नहीं है मेरा विरोध व्यक्ति,
सम्प्रदाय,
वर्ग,
दल
या किसी भी समाज से नहीं है मैं तो सभी के सहयोग के लिये हूँ परन्तु शर्त यह है कि
सद्भाव, सद्व्यवहार, सद्प्रेम एवं सत्कार्य रूपी सद्भाव के
रूप में; इससे पृथक् जो इसमें किसी भी प्रकार का विरोध के भाव से सामने
उपस्थित होता है बस मैं उसी दुर्भाव दुव्र्यवहार, दुष्प्रेम एवं
दूषित या दुष्कर्म रूप दुर्भाव का ही मात्र विरोधी ही नहीं, बल्कि शत्रु भी
हूँ । मुझे किसी भी व्यक्ति से घृणा या द्वेष नहीं है बल्कि उसके दूषित-भाव,
दूषित-व्यवहार,
दुषित-विचार,
दूषित-प्रेम
एवं दूषित-कर्म तथा दूषित-त्याग और दूषित समर्पण का विरोधी हूँ, शत्रु
हूँ, उसे समाप्त किये बगैर चैन न लूँगा, मात्र किसी
व्यक्ति विशेष या सम्प्रदाय विशेष से ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण
मानव तो मानव है प्राणिमात्र से ही ।
हम तो स्पष्ब्टतः एवं पूरे चुनौती के साथ ही
सकल मानव समाज, चाहे वह
जिस देश-जाति का हो घोषित करते हैं कि हम किसी के भी विरोधी नहीं बल्कि सभी
के सहयोगी हैं । यथार्थतः किसी को परीक्षण करना है तो नजदीक आकर अपने विचार,
बुद्धि,
साधना
सिद्धि एवं सद्ग्रन्थों के माध्यम से
यथार्थतः एवं मूलतः जानकारी और प्रमाणों के साथ परीक्षण कर सकते हैं । मै।
तो सब तरह से परीक्षण हेतु तैयार हूँ । आप हिन्दू हैं तो वेद, पुराण,
रामायण,
गीता
आदि से, आप यहूदी हैं तो तौरेत् से, आज जैन हैं तो ‘नमों अरिंहताणं’
की
पद्धति से आप बौद्ध हैं तो सम्यक् दृष्टि, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् बोध आदि
से आप ईसाई हैं तो बाइबिल से, आप मुस्लिम हैं तो र्कुआन पाक् से,
आप
सिक्ख हैं तो गुरु ग्रन्थसाहब से, यदि आप कबीर पन्थीं हैं तो कबीर के शब्द
से या आप नास्तिक हैं तो ‘सत्य’ और सत्ता से आप
राजनीतिक हैं तो राजनीति, धर्मनीति, कूटनीति आदि
नीतियों से यानी आप जो हों, वैज्ञानिक हों तो विज्ञान से; आप
शैव हैं तो शिव-स्वरोदय, अध्यात्म रामायण या शिव संहिता से,
आप
शक्तिवादी या शाक्त हैं तो श्रीमद्भागवद ्महापुराण से आदि आदि आप जो भी हों उसी
विभाग के सर्वोच्च विधान और सर्वोंच्च प्रमाणों से हमारा परीक्षण कर सकते हैं कि
हम आप को उसी (आप के ही) विधान से आप के सहयोगी हैं या नहीं, परन्तु इसके लिये अनिवार्य है कि शान्तिमय ढंग से
यथार्थ प्रमाणों के साथ विचार-विमर्श, साधना-प्रक्रिया, अनुभूति
और बोध करते-कराते हुये जाना-जनाया जाय । मनमाना और उद्दण्डता के साथ नहीं । हम
सभी परीक्षण के लिये तैयार हैं ।
शैव बन्धुओं ! शिव-लिंग का अर्थ शिव यानी
ब्रह्म-शक्ति का मूर्त रूप में होकर कार्य करने वाले स्थान विशेष, जो
मूलाधार में ‘मूल’ रूप में स्थित हैं, से
हैं । प्रत्येक मानव एवं प्राणिमात्र में लिंग की बात है परन्तु उस सामान्य लिंग
में और इस लिंग में महान् अन्तर है । वास्तव में जान कर ही कोई बात करनी अच्छी
होती है । शिव-लिंग मानव के अन्तर्गत लिंग मूल और गुदा के मध्य स्थित मूलाधार चक्र
में स्थित ‘मूल’ से है जहाँ पर सः रूप शक्ति, शिव
रूप सत्ता में परिवर्तित होती है या मिलन करके शिव-शक्ति रूप एक होती है । जब
उत्थान या कल्याण की बात रहती है तब यह मिलन भू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र में किया
जाता है और जब गृहस्थ जीवन व्यतीत करना होता है यानी सन्तानोत्पत्ति की बात होती
है तब यह मिलन मूलाधार स्थित मूल में होती है और मिलन से अहम् रूप जीव तत्पश्चात्
प्रवाह युक्त अक्षय तेज बिन्दु तत्पश्चात् हिरण्य रूप में गर्भ में शुक्र रूप बनते
हुये बनता है । इस प्रकार के प्रजनन
पद्धति लागू होती है अर्थात् शिव-लिंग सत्ता-शक्ति वाचक है जिसकी यथार्थ अनुभूति
योग-साधना में होती है, न कि शंकर लिंग रूप व्यक्ति वाचक में । शिवलिंग
को शंकर लिंग कहना अपने जढ़ता एवं मूढ़ता रूप नाजानकारी एवं नासमझदारी का परिचय
देना है ।
शान्ति और आनन्द की उपलब्धि मन्त्र से नहीं,
अपितु
योग-साधन या आध्यात्मिक क्रियाओं से मन शान्त होता है तथा तत्त्वज्ञान में मन को
समर्पित करना पड़ता है । वास्तव में बन्धुओं सोऽहँ-ह ँ्सो प्रक्रिया को भी अजपा-जप
तथा शिव या स्वरसती होने से लोग अजपा-गायत्री भी कहते हैं । शिव, ब्रह्म-शक्ति
रूप होता है । शंकर नहीं । बन्धुओं! शिव, योग-साधना या अध्यात्म के अभीष्ट
लक्ष्य है, कर्म एवं मन्त्र के नहीं ।
सद्भावी विद्याभिलाषी बन्धुओं ! ॐ ऐं, ॐ हृीं, ॐ क्लीं
आदि की बात अगले शीर्षक में पेश होगी । यहाँ पर पिछले प्रकरण जैसा ही ‘विद्यातत्त्वम्’
तथा
शोधयामि पर ही विचार होगा । विद्यातत्त्वम् तथा शोधयामि का यहाँ पर वास्तव में
क्या अर्थ है, किस भाव में यहाँ पर यह प्रयुक्त हैं इसे ही
देखा जायेगा । बन्धुओं हमारे-आपके तथा सभी के लिये अपने जीवन को सुचारू रूप से ले
चलने एवं अपने यथार्थतः लक्ष्य को हासिल करने हेतु ‘विद्यातत्त्वम्
शोधयामि की यथार्थ एवं मूलतः जानकारी अनिवार्य है ।
सृष्टि में यदि कोई सत्ता-शक्ति, व्यक्ति
एवं वस्तु है तो उसकी यथार्थता अथवा सत्यतः जानकारी अत्यावश्यक है अन्यथा उसका
प्रयोग, उपयोग या लाभ उचित रूप में मिलना असम्भव है । सोना के पहाड़ पर ही
हों और यह जानकारी न हो कि यह सोना है जिस पर हम हैं तो वह उसका क्या लाभ प्राप्त
करेगा ? कदापि कुछ हासिल नहीं कर पायेगा । यही कारण है कि सुचारू, सुस्पष्ट
एवं सफल जीवन हेतु अनिवार्यतः विद्यालय भेजने की बात की जाती है ताकि सर्वप्रथम
विद्या अर्जन होगा तत्पश्चात् उसी के अनुसार कर्म होगा, तब जीवन सफलता
के साथ अपने लक्ष्य को हासिल करेगा । जो अनपढ़ होगा, अज्ञानी होगा,
साधना
रहित होगा, अशिक्षित होगा, अनुभवहीन होगा ।
वास्तव में वह दुनिया को क्या समझेगा, दुनिया में कैसे कर्म करेगा, कैसे
रहेगा तथा दुनिया का लाभ कैसे प्राप्त करेगा ?
वास्तव में विद्या का अर्थ जानकारी से है ।
किसी भी प्रकार की जानकारी विद्या के अन्तर्गत ही आता है चाहे वह जिस विषय-वस्तु
का क्यों न हो । हाँ, यह बातें हैं कि उसमें श्रेणियाँ हैं ।
श्रेणियों के अनुसार ही उसकी जानकारी होती है तथा जैसी जानकारी होती है वैसे ही
कर्म होता है और तब जैसा कर्म होता है वैसी प्राप्ति होती है । इसलिये हम सभी
बन्धुओं को चाहिये कि जीवन के पहली घड़ी में उत्तम विद्या को प्राप्त करें
तत्पश्चात् विद्या के अनुसार ही अपने जीवन को पूर्णतः ले चलें । जानकारी या विद्या
से पृथक् कर्म हो ही नहीं सकता, यदि होगा भी तो उसके यथार्थता की
अनुभूति और बोध रूपी उपलब्धि ही नहीं हो पायेगी । जो सुख, आनन्द, चिदानन्द
तथा सच्चिदानन्द रूप में है । सत्ता-शक्ति, व्यक्ति-वस्तु
में से कोई भी क्यों न हो उससे किसी भी प्रकार की उपलब्धि हेतु यह अनिवार्य है कि
उसकी वास्तविक या यथार्थतः जानकारी हासिल किया जाय तत्पश्चात् अनिवार्यतः उसी के
अनुसार अपने जीवन को ले चला जाय । यहाँ पर
यह बात बार-बार कही जा रही है ताकि उसकी
बार-बार पुनरावृत्ति के माध्यम से अभ्यास हो जिससे जीवन का यथोचित लाभ उपलब्ध हो ।
विद्या की उत्पत्ति परमतत्त्वम् रूपी आत्मतत्त्वम्
से ही होती है । इसीलिये विद्या में विद्या के पश्चात् तत्त्वम् भी उल्लिखित रहता
है जो विद्या-तत्त्वम् नाम से जाना और कहा जा रहा है । परन्तु जिस प्रकार प्रत्येक
सत्ता-शक्ति, व्यक्ति-वस्तु मुख्यतः दो रूपों में कार्य करता
तथा उसका भोग-भोगता है ठीक उसी प्रकार विद्यातत्त्वम् का भी दो रूप है । पहला है
---- विद्यातत्त्वम् का सामान्य रूप, सामान्य अर्थ तथा सामान्य भाव एवं
सामान्य प्रयोग और दूसरा है ---- विशिष्ट रूप, विशिष्ट अर्थ,
विशिष्ट
भाव तथा विशिष्ट प्रयोग । विद्यातत्त्वम् का सामान्य रूप यह है कि सृष्टि की सम्पूर्ण
जानकारी ही विद्या है । जिस प्रकार से भी, जिस किसी भी विषय-वस्तु की जानकारी ही
विद्या है । परन्तु विद्यातत्त्वम् का विशिष्ट रूप यह है कि -- परमतत्त्वम् रूप
आत्मतत्त्वम् रूप शब्द-ब्रह्म या बचन या गाॅड या अलम् की यथार्थतः तात्त्विक
रहस्यात्मक जानकारी मात्र ही विद्यातत्त्वम् है अर्थात् तत्त्वम् की जानकारी,
तत्त्वम्
की जानकारी तथा तत्त्वम् की तात्त्विक रहस्यात्मक जानकारी ही विद्यातत्त्वम् है ।
विद्यातत्त्वम् में विशिष्टतः -- तत्त्वम् के माध्यम से तत्त्वम् को ही जानना,
तत्त्वम्
को ही देखना, तत्त्वम् के अन्तर्गत ही अपने को तथा समस्त
सृष्टि को देखते हुये यथार्थतः
अद्वैत्तत्त्वम् के रूप या एकत्वबोध रूप में स्वयं को भी स्थित देखना ही
विद्यातत्त्वम् का विशिष्ट रूप है ।
तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या सत्य-धर्म या
परमज्ञान या परमविद्या या अद्वैत्तत्त्वम् या अद्वैत् विद्या आदि सभी ही
विद्यातत्त्वम् का ही पर्याय है । इनमें से किसी को भी उनके तात्त्विक रहस्यों के
साथ यथार्थतः जानकारी कर लेने पर स्वतः ही शेष अन्य की उसी प्रकार जानकारी हो
जायेगी । अधिकाधिक संख्या में लोग शिक्षा को ही विद्या समझने लगे हैं जो उनकी भूल,
भ्रम
एवं गलतफहमी तथा नाजानकारी एवं नासमझदारी ही मानी जायेगी क्योंकि वास्तव में
परमतत्त्वम् रूपी आत्मतत्त्वम् की यथार्थतः जानकारी ही विद्यातत्त्वम् है जिसमें
सृष्टि की जड़-चेतन की यथार्थतः जानकारी ही विद्यातत्त्वम् है जिसमें सृष्टि की
जड़-चेतन सम्बन्धी अविद्या-विद्या से सम्बन्धित जानकारियाँ ही आती है ।
ॐ ऐं क्ली सर्वतत्त्वैः शोधयामि नमः स्वाहा
सद्भावी तत्त्वनिष्ठ बन्धुओं ! पिछले प्रकरणों
की भाँति ही यहाँ पर भी शोधयामि शब्द है । यहाँ शोधयामि का अर्थ जप नहीं होता है,
वास्तव
में रहस्यात्मक खोज होता है । सर्वतत्त्वैः तथा सर्वतत्त्वैर्विशुद्धम् दोनों दो
अर्थ प्रस्तुत करता है जिसमें सर्वतत्त्वैः का अर्थ सर्वप्रथम तो परमतत्त्वम् रूप
आत्मतत्त्वम् है तत्पश्चात् चेतन-तत्त्व तथा जड़-तत्त्व आदि सभी की यथार्थतः
रहस्यात्मक जानकारी है । सर्वप्रथम परमतत्त्वम् या आत्मतत्त्वम् की तात्त्विक
रहस्यात्मक जानकारी विद्यातत्त्वम् है । चेतन तथा चेतन से सम्बन्धित समस्त
जानकारियाँ योग-साधना या अध्यात्म विद्या कहलाता है या विद्या नाम से जाना जाता है
तत्पश्चात् जड़-तत्त्व तथा जड़-तत्त्व से सम्बन्धित समस्त विषय-वस्तुओं की जानकारी
ही भौतिक विद्या या अविद्या नाम से जानी जाती है। चारो वेद और छः वेदांग--- शिक्षा,
कल्प,
व्याकरण,
निरुक्त,
छन्द
तथा ज्योतिष रूप छः वेदांग नाम से जाने जाते हैं । इस प्रकार चार वेद तथा छः
वेदांग रूप दसों ही अविद्या के अन्तर्गत आते हंै । यह सब आता है सर्वतत्त्वैः के
अन्तर्गत । अब आइये सर्वतत्त्वैर्विशुद्धम् की बात देखी जाय ।
सर्वतत्त्वैर्विशुद्धम् का अर्थ होता है समस्त तत्त्वों--- आत्मतत्त्वम् या
अद्वैत्तत्त्वम् या विद्यातत्त्वम् तथा चेतन-तत्त्व एवं जड़-तत्त्व के
संयुक्त प्रयोग से ही उत्पन्न होती है,
चालित
है तथा लय होती है और जड़-तत्त्व तथा चेतन-तत्त्व दोनों ही आत्मतत्त्वम् से
उत्पन्न, संचालित एवं लय होता है । इन
तीनों आत्मतत्त्वम् तथा चेतन-तत्त्व एवं जड़-तत्त्व तथा उन सभी से सम्बन्धित
सम्पूर्ण जानकारियाँ ही सर्वतत्त्वैः शोधयामि है तथा परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम्
मात्र की रहस्यात्मक यथार्थ जानकारी मात्र
ही सर्वतत्त्वैर्विशुद्धम् के अन्तर्गत आता है ।
वास्तव में शोधयामि की नाजानकारी एवं नासमझदारी
ही ॐ ऐं, ॐ हृीं, ॐ क्लीं
तथा ॐ ऐं हृीं क्ली आदि बीजाक्षरों को पूर्व में तथा नमः स्वाहा को पश्चात्
में जोड़कर इन्हें मन्त्र रूप में परिणत या परिवर्तित कर दिया गया है । शोध का
वास्तविक अर्थ रहस्यात्मक यथार्थतः खोज से है । परन्तु अविद्या के अन्तर्गत रहने
वाले समस्त शिक्षित, विद्वान्, पण्डित, आचार्यगण,
विद्यातत्त्वम्
तथा सर्वतत्त्वै रहस्यात्मक शोध करने के शक्ति के बीज-अक्षरों को पहले और नमः
स्वाहा को पीछे जोड़कर यज्ञों या होम के मन्त्र रूप में जप करना प्रारम्भ करते हैं
। इन जढ़ एवं मूढ़ बन्धुओं को कौन समझावे कि शोध का अर्थ जप नहीं हो सकता होता है
क्योंकि यदि कोई समझाने भी जायेगा तो ये उससे झगड़ा-झंझट भी करना शुरू कर देंगे
तथा घूम-घूमकर प्रचार करना प्रारम्भ कर देंगे कि अमुक व्यक्ति नास्तिक है, अमुक
व्यक्ति तो मन्त्रों की निन्दा करते हैं, अमुक व्यक्ति मन्त्र का विरोध करते हैं
आदि आदि नाना विधानों से उसकी खिलाफत करते हैं, विरोध करते हैं
तथा संघर्ष भी करने लगते हैं । आप तो उन्हें सद्भाव पूर्वक समझाने का प्रयत्न
करेंगे परन्तु वे आप को उसका उपर्युक्त विधानों से आप को उसका प्रतिफल देंगे ।
मन्त्र-प्रयोग की यथार्थता
सद्भावी मन्त्रवेत्ता बन्धुओं ! वास्तव में
मन्त्रों का प्रयोग घोर अन्धकार में अज्ञात वस्तुओं से भरा-पूरा कोठरी में
सूक्ष्मातिसूक्ष्म वस्तु का टटोलना अथवा टटोलकर खोजना है । मन्त्रों की यथार्थता
की जानकारी जब मन्त्रवेत्ता को ही नहीं रहती है तो मन्त्र जापक (जप करने वाला) को
क्या होगा ? और जब मन्त्रों के अभीष्ट देवताओं की यथार्थ
जानकारी ही नहीं होगी तो मन्त्र से यथार्थ लाभ कैसे होगा ? यह अतिविचारणीय
प्रश्न है जिसकी वास्तविक जानकारी मन्त्रवेत्ता तथा जापक बन्धुओं को अवश्य करनी
चाहिये । अब मैं यहाँ पर मन्त्र के कुछ भ्रामक, मिथ्या एवं
तथ्यहीनता की यथार्थ जानकारी रखते हुये उनके प्रचलित रूप का पर्दाफास करुँगा,
जिससे
मन्त्रों की यथार्थ जानकारी हासिल कर जनमानस लाभान्वित हो सके तथा उसकी
अविश्वसनीयता समाप्त होकर, विश्वसनीयता
मजबूत एवं स्थिर होवे ।
मन्त्रवेत्ता बन्धुओं से तो मुझे इतना अवश्य
कहना है कि वास्तव में मन्त्रों की यथार्थता जान लिया जाय तो उसके प्रयोग से भी
अभीष्ट उपलब्धि हो सकती है । यह बात सम्भव है कि तत्त्वज्ञान, योग-अध्यात्म,
स्वर-संचार,
मुद्रायें,
महावाक्य
की यथार्थता के साथ अनुभूति एवं बोध आदि क्रमशः प्रभाव में हल्के होते जाते हैं
फिर भी सामान्य स्थिति में मन्त्रों-तन्त्रों की स्थिति प्रभाव नहीं, नहीं
है, बशर्ते कि उसकी उचित जानकारी हो तथा उसके प्रयोग को उचित तरीके से
किया जाय । अब आइये मन्त्रों के मिथ्या-रूपों एवं गलतफहमियों को पर्दाफास किया जाय
।
‘मन्त्र - प्रयोग का गलत रूप’
सद्भावी मन्त्रवेत्ता बन्धुओं से मैं स्पष्ट
बतला देना उचित ही समझूँगा कि कोई सत्ता-शक्ति, शरीर-सम्पत्ति
या व्यक्ति-वस्तु तथा उसकी वास्तविक जानकारी बुरी नहीं होती और न उसकी नाजानकारी
एवं नासमझदारी ही बुरी होती है । बुरा तो वह है कि नाजानकार एवं नासमझदार रहने के बावजूद भी
दिखाना कि मैं जानकार हूँ, मैं समझदार हूँ, इस मिथ्याज्ञान
प्रचार तथा मिथ्या-प्रदर्शन से सम्भव हो कि कुछ समय विशेष के लिये तत्काल कुछ उसका
लाभ मिल जाय परन्तु यह स्थिर एवं टिकाऊ नहीं होगा । इसकी महत्ता तभी तक है जब तक
कि कोई उस विषय-वस्तु का यथार्थ जानकार नहीं आ जाता । जैसे ही यथार्थ जानकार आ
धमकता है वैसे ही नकली, नखड़ा-पोश की स्थित का पर्दाफाश होने लगता है
जिससे उन्हें नाना तरह की परेशानी उत्पन्न होने लगती है और वे असल का जमकर
प्रतिरोध भी करते हैं परन्तु असल तो असल है अन्ततः समाप्त होता है वही कमसल यानी
नकल-नखड़ापोश । वही हाल आज नकल-नखड़ापोश वाले अवतारियों के साथ हमारी है । हम तो
सबको उसकी कमियों को पूरा करने, बुराइयों के स्थान पर अच्छाइयों को
भरने, उसके अन्दर से डाह, द्वेष निकाल कर मेल-मिलाप
प्रेम-व्यवहार भरने, हम आये हैं । उन सबों का पूर्णतः सहयोग करने,
तो
उल्टे ही ये सब हमको ही विरोधी, हमको ही नास्तिक, हमको
ही अत्याचारी, गुण्डा आदि कहना तथा इल्जाम लगाना शुरू कर दिये
। इन्हें कौन समझावें कि हम इनकी निन्दा और विरोध करने नहीं आये हैं। इनकी गलतियों
को उजागर करते हुये उसके स्थान पर वास्तविक सत्य को जनाने आये हैं ।
सद्भावी मन्त्राभिलाषी बन्धुओं ! आइये अब मूल
प्रश्न -- मन्त्रों की यथार्थता पर ध्यान दिया जाय तथा उसमें से उसकी गलत-फहमियों
को निकालकर उसके स्थान पर सत्यता एवं उसके यथार्थता को प्रतिस्थापित किया जाय ताकि
मन्त्राभिलाषी बन्धुओं का लोक-कल्याण हो सके ।
करागे्र
वसति लक्ष्मी, कर मध्ये च सरस्वती ।
कर
मूले ब्रह्मो स्थितः, प्रभाते कर इति दर्शनम् ।।
अर्थात् हाथ के अगले भाग में लक्ष्मी वास करती
हैं तथा हाथ के मध्य भाग में सरस्वती (स्वरसती) तथा हाथ के मूल में ब्रह्म की
स्थिति (स्थान) है । इस प्रकार प्रभात बेला में शयन से जगते समय इनका दर्शन करें ।
अर्थात् हाथ का प्रातः शयन से जगते समय सर्वप्रथम दर्शन करें क्योंकि मात्र हाथ के
दर्शन में ही लक्ष्मी, स्वरसती (सरस्वती) तथा ब्रह्म का दर्शन है ।
बन्धुओं अर्थ पर थोड़ा सा भी गौर फरमाया जाया
या ध्यान दिया जाय तो समझ में आ जाय कि जब मात्र हाथ में ही लक्ष्मी है और स्वरसती
जी हैं तो श्रीविष्णु जी और ब्रह्मा जी के पास कौन हैं और हाथ में ही जब ब्रह्म भी
हैं तो सृष्टि चालन कैसे और कौन करता है ? इतना ही नहीं, बन्धुओं जब हाथ
में ही धन-देवी लक्ष्मी, विद्या देवी स्वरसती तथा कल्याण रूप
शान्ति और आनन्द के देव ब्रह्म है, तो पूरे शरीर में कौन होगा । यह
विचारणीय बात है । इतना ही नहीं वह किसी एक के हाथ में, बल्कि सभी
मानव-मात्र के हाथों में ही । इस प्रकार के कथनों से ही मन्त्रों की मर्यादा घटती
है । किसी का बात को कहने के पहले, ‘नहीं और कुछ’, तो थोड़ा सा भी
उसके असलियत पर विचार तो अवश्य ही कर लेना चाहिये तब बात करनी चाहिये । ताकि बातों
का असर या प्रभाव पड़ सके ।
यह वर्णन विश्व-विराट रूप परमेश्वर का है जिसके हाथ लक्ष्मी, स्वरसती
तथा ब्रह्म की स्थिति है, न कि सभी मनुष्य के हाथ में । हाँ,
एक
बात है कि प्रत्येक मानव को अपनी शरीर प्यारी होती है, अपना अंग प्यारा
होता है और जिसका जिसमें प्यार होता है वह उसको शयन से जगते ही देख लेवें तो उसको
कितनी प्रसन्नता की बात होगी । यह सभी के लिये अनुभव की बात है कथनी और लेखनी की
नहीं । इसीलिये सोने से जगते समय प्रातः अपने हाथ का दर्शन करना बताया गया क्योंकि
हाथ से ही दिन भर का कार्य करना है । इसीलिये कहा गया कि हाथ को प्रातः ही दर्शन
करके कहा जाया कि हे हाथ दिन-भर ऐसा रहना कि तुझसे कोई गलती न हो जाय और उसी कथन
को दिन भर याद रखते हुये हाथ को किसी भी गलत कार्योंं में न लगाया जाय ।
वास्तविकता तो यह है ।
अब आइये बन्धुओं जल स्नान करने हेतु पवित्र
करने का मन्त्र देखें । स्नान हेतु जल सात नदियों से लाने के स्थान पर कुआँ या
पम्प आदि से ही स्नान करने वाले बर्तन में जल भर करमन्त्र से उसी को सात नदियों का
मान लेते हैं जैसे--
गंगा
च यमुनेश्चैव गोदावरी स्वरसती ।
नर्मदे
सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ।।
यह मन्त्र स्पष्ट कर रहा है कि गंगा, यमुना,
गोदावरी,
स्वरसती,
नर्मदा,
सिन्धु
और कावेरी-- सात नदियों का जल शुद्ध और पवित्र माना गया है और यह स्पष्टतः बतला
रहा है कि स्नान वाले जल में इन सातों पवित्र नदियों का जल मिला लेवें तत्पश्चात््
स्नान करें । परन्तु बजाय नदियों में जाकर स्नान करने अथवा उन पवित्र नदियों के जल
को लाने के अपने जल को ही उन नदियों का जल मान लेते हैं। ब्रह्मनिष्ठ लोगों की तरह
ये लोग भी मन्त्र से ही देवियों या नदियों को भी बुला लेते हैं ।
स्नान आदि क्रिया से निवृत्ति के पश्चात्
पूजा-विधान में जब लाना होता है तब पूजा-स्थल को पवित्र करते हैं
ॐ पृथ्वी त्वयाधृता, त्वं च विष्णुना धृता ।
त्वं
च धारम माम् देवी पवित्रं कुरु चासनम् ।।
ॐ जैसा कि सर्वविदित है कि ब्रह्मा,
विष्णु,
महेश
का उत्पत्ति और लय रूप होता है । ब्रह्म-शक्ति या आत्म-शक्ति और संसार के बीच
सम्बन्ध स्थापित करने और रखने हेतु ॐ सर्वोत्तम कड़ी
है, बशर्ते तत्त्वज्ञान, योग-साधना या अध्यात्म तथा स्वर-संचार
पद्धति एवं मुद्राओं से रहित हों । ‘पृथ्वीं तू सभी को धारण करने वाली है,
तूने
श्रीविष्णु जी को धारण किया था इसलिये हे देवी ! मुझे भी धारण करें तथा मेरे आसन
(पूजास्थली) को पवित्र करें ।’ अब यहाँ पर देखना यह है कि क्या पुजारी
बन्धु को पृथ्वी धारण ही नहीं है, यदि नहीं धारण की है तो वे कहाँ से बोल
रहे हैं और धारण की है तो मुझे धारण करें यह कहने की क्या बात है ? हमारा
तो यह विचार है कि पृथ्वी सभी को धारण करने वाली है । इसने विष्णु को भी धारण किया
था तथा मुझे भी धारण करती है इसलिये हमें देवी को यानी पृथ्वी को जहाँ रहे वहीं
पवित्र रखें तथा पूजास्थली को तो और ही पवित्र कर लेवें। मन्त्रों की महत्ता मात्र
पढ़ने और बोलने की ही नहीं है, अपितु उसकी यथार्थ जानकारी हासिल करके
उसी के अनुसार व्यवहार तथा कर्म खोजकर पूजा-विधान के समय तो अनिवार्यतः करने का
विधान सदा ही मन्त्र बताते हैं परन्तु हम सभी उसके अर्थों और भावों को समझकर वैसा
ही करने के बजाय मनमाना तरीके से जैसे-तैसे काम चलाऊ या फर्ज अदायगी जैसे क्रिया-कलाप
करते हुये मन्त्रों का उच्चारण करते रहते हैं जिससे यथोचित अभीष्ट लाभ की उपलब्धि
तो हो नहीं पाती है और मन्त्र भी बदनाम हो जाता है । मन्त्रों की विश्वसनीयता
समाप्त हो जाती है । ऐसा कार्य हम-आप सभी बन्धुओं को नहीं करना चाहिये जिससे
महत्वपूर्ण सत्ता-शक्ति, व्यक्ति-वस्तु एवं ज्ञान, योग,
क्रिया-प्रक्रिया
तथा मन्त्र आदि के मर्यादा को समाप्त करते हों । अभी आगे एक और मन्त्र देखें
जिसमें क्या है और क्या किया जाता है ? मन्त्र है पवित्र करने का । जरा इस पर
गौर करेंगे----
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्यां
गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षसः
वाध्याभ्यान्तर शुचिः ।।
अर्थात् जैसा कि अभी-अभी पहले वाले मन्त्र में
बतलाया गया है कि ॐ ब्रह्मा, विष्णु, महेश
का उत्पत्ति एवं लय रूप ब्रह्म ही होता है जिसके उच्चारण मात्र से तीनों देवों का
भी उच्चारण उसके साथ ही मान लिया जाता है । वही ॐ रूप
ब्रह्म । संसार में बोधगम्यता एवं अनुभवगम्यता के पश्चात् वाचिक मन्त्रों में ॐ की एक ‘अहं भूमिका’ होती है जिसका
परिणाम है कि यह सभी वाचिक मन्त्रों के पूर्व प्रयुक्त होता है । मन्त्र का अर्थ
है --- ‘अपवित्र हों या पवित्र हों, या सभी प्रकार अपवित्र या पवित्र जैसा
भी हो, स्थानों पर क्यों न गये हों, परन्तु जो (आप) कमल नयन प्रभु का स्मरण
कर लिया वह समझ लें कि भीतर-बाहर से भी पवित्र हो गया ।’ बात तो ठीक ही
है परन्तु जल से आचमनि (जल छिड़काव) तो कहीं नहीं बतलाया गया है परन्तु पण्डित जी
महानुभाव जल छिड़काव करके पवित्र होते-हवाते हैं । हमारे दृष्टि कोण में तो यह
स्पष्टतः दिखलायी दे रहा है कि कमलनयन प्रभु का स्मरण ही इसमें प्रधान बात है
आचमनि नहीं ।
कमल नयन प्रभु के स्मरण की बात, मूल
बात है तो यहाँ यह अत्यावश्यक है कि जिस कमलनयन प्रभु का स्मरण करना है उसकी जानकारी
एवं पहचान का होना अनिवार्य है जिसे हम जानेंगे ही नहीं और पहचानेंगे ही नहीं उसके
याद या स्मरण की बात ही कहाँ उठती है । स्मरण के पूर्व जानकारी और पहचान
अनिवार्यतः कड़ी है । यदि जानकारी और पहचान नहीं, तो फिर स्मरण
कहाँ से ? अर्थात् स्मरण भी नहीं । तत्त्वज्ञानी जो परमतत्त्व रूप आत्मतत्त्वम्
रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा को जानता और पहचानता है तथा
योगी-आध्यात्मिक जो आत्म-ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म को जानता
और पहचानता है मात्र उसके लिये यह मन्त्र है अज्ञानी शिक्षित, पण्डित,
पुजारी,
आचार्य,
कण्ठीधारी
आदि के लिये नहीं । जो भी हो जानकारी और पहचान के बगैर स्मरण की बात करना जढ़ता
एवं मूढ़ता का परिचय देना है । यानी सर्वप्रथम जानकारी और पहचान करें तत्पश्चात्
तो नहीं चाहने पर भी स्मरण होने लगेगा, क्यों परमात्मा या परमब्रह्म या आत्मा
या ब्रह्म इतने तुच्छ या सामान्य नहीं होते कि जानने और पहचानने के पश्चात् आसानी
से भूल जाया जाय । फिर स्मरण के लिये परेशान होने की बात ही समाप्त हो जाती है ।
तत्त्वज्ञानी तथा योगी-साधक, सिद्ध एवं आध्यात्मिक सन्त महात्मा कभी
भी अपवित्र नहीं होते हैं । अपवित्र कहने मानने वाला ज्ञान और योग के महत्व को
जानता ही नहीं, क्योंकि जिसके स्मरण मात्र से सभी अवस्थाओं में
रहने वाला बाहर-भीतर से पवित्र हो जाता है
। तब तो तत्त्वनिष्ठ या तत्त्वज्ञानी तथा ब्रह्मनिष्ठ या योगी-सिद्ध या आध्यात्मिक
सन्त-महात्मा तो सदा ही उसी यादगारी या स्मरण में लीन रहते हैं फिर अपवित्रता की
बात ही कैसे उत्पन्न हो सकती है अर्थात् कदापि नहीं हो सकती ।
मन्त्रवेत्ता बन्धुगण इन मन्त्रों के माध्यम से
अपनी जढ़ता एवं मूढ़ता का ऐसा परिचय देते हैं जिससे कट्टर सत्यान्वेषी या
सत्याभिलाषी या सत्यान्वेषक बन्धुगण नास्तिकता के तरफ उन्मुख होने लगते हैं । नाना
विधानों को मनमाना तरीके से बना-बनाकर यथार्थतः मन्त्रों की गरिमा को समाप्त कर
देना सामान्य पण्डितों की बात है । सत्य को सत्पुरुषों के उपदेशों के अनुसार
जानेंगे नहीं और न तो मन्त्रों की यथार्थता की तलाश ही करेंगे । इसी प्रकार नाना
प्रकार के कपटपूर्ण, धूर्ततापूर्ण, आडम्बरी एवं
पाखण्डपूर्ण क्रिया-कलापों और व्यवहारों को देखकर मानव समाज में घृणा, डाह,
द्वेष
आडम्बर का बोल-बाला हो गया है जबकि धार्मिक रूप में समाज सुधार का दायित्व
ब्राम्हणों का अभिमान एवं अहंकार तथा मांस-मदिरा के वे अग्रणी होकर त्रेतायुग के
ब्राम्हणों को भी मात कर दिये हैं जिसके लिये रामावतार हुआ था और पुनः ऐसे ही गलत समाज के सुधार, दुष्टों
के संहार तथा सज्जनों, भक्तों सेवकों के उद्धार हेतु पूर्णावतार हुआ
है जिसकी जानकारी और पहचान करना हमारा आपका सर्वप्रथम कत्र्तव्य एवं जीवन लक्ष्य
प्राप्ति हेतु अनिवार्य है ।
‘‘भगवद् भाव प्रधान मन्त्र’’
सद्भावी मन्त्रवेत्ता बन्धुओं ! मन्त्रों का
वर्णन पृथक्-पृथक् करना शुरू किया जाय, तो मन्त्रों की गिनती करना कल्पना से
भी परे की बात है । हम आप सभी को ऐसे विचारों को ढूढ़ना चाहिये जो सुविधापूर्वक,
सुगमता
से किया जा सके तथा उचित लाभ लिया जा सके । सनातन धर्म के नाम पर तीन भागों में
विभाजित पूजा-पाठ, मन्त्र-जप आदि विधानों को करते-कराते हैं ।
जैसे वैष्णव, शैव,
शाक्त । परमब्रह्म या
परमेश्वर या परमात्मा तथा श्रीविष्णुजी
महाराज, श्रीरामचन्द्रजी महाराज, श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज इन तीनों
पूर्णावतारी सत्पुरुषों तथा इनके परमसेवक, परमप्रेमी एवं परमभक्तों आदि से
सम्बन्धित जितने भी मन्त्र हैं चाहे वे सत्ता-शक्ति वाचक हों या शरीर-सम्पत्ति
यानी व्यक्ति-वस्तु वाचक, या जो भी हों वे सभी वैष्णव सम्प्रदाय
में आते हैं तथा शंकर जी तथा शंकर जी से सम्बन्धित सेवकों-भक्तों आदि से सम्बन्धित
जितने भी मन्त्र हैं सभी शैव सम्प्रदाय या शैव मत के अन्तर्गत आते हैं और
आदि-शक्ति या दुर्गा आदि से सम्बन्धित मन्त्र शाक्त मत या शाक्त सम्प्रदाय के
अन्तर्गत आता है । इस प्रकार वैष्णव मत में तत्त्वज्ञानी या सत्यज्ञानी या
परमज्ञानी या विद्यातत्त्वम् या परमविद्या वाले आते हैं तथा शैव मत में योगी-यति,
़़ऋषि-महर्षि, प्राफेट्स, पैगम्बर तथा
समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्मा जो भगवद् भक्त नहीं हैं, आते हैं तथा
दूर्गा जी या शक्ति के सभी मानने वाले
शाक्त हैं ।
सत्ता-प्रधान भगवद् भाव से सम्बन्धित मन्त्र के
अन्तर्गत शरीर-प्रधान के अलावा भगवान् सम्बन्धी सभी मन्त्र ही आते हैं। ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ को बादशाक्षर मन्त्र के नाम से भी जाना
जाता है । ‘ॐ श्री परमात्मने नमः’ भी
भगवद् भाव वाला मन्त्र के अन्तर्गत ही मन्त्रों से उचित लाभ लेने हेतु अत्यावश्यक
हैं कि दिखाने के लिये मन्त्र-जाप या तप-त्याग आदि न किया जाय, मान-सम्मान
हेतु न किया जाय बल्कि अभीष्ट लाभ या अभीष्ट पूर्णभाव मात्र से ही किया जाय तो
मन्त्रों का मन्त्रों के स्तर तक का अभीष्ट लाभ अवश्य ही उपलब्ध हो सकता है परन्तु
मन्त्र जब मनमाना जनाने-दिखाने एवं मान-सम्मान हेतु ही करना है तो अपनी क्षमता भर
वह भी पूरा करता ही है या मन्त्र द्वारा वह भी पूरा होता ही है ।
मन्त्रों का महत्व ज्ञान और वैराग्य के समक्ष
नहीं के बराबर होता है । मन्त्रों से कुछ सांसारिक अभीष्ट सिद्धि हो जाय, बस
इतना ही मुमकिन या सम्भव है, इससे आगे मन्त्र कुछ कर ही नहीं सकते ।
मन्त्रों की कितनी महत्ता है दो चार शब्दों में सृष्टि के एक सर्वोच्च
मन्त्रवेत्ता की घटना सारांशरूप में दो-चार बातों में ही रख रहा हूँ । मात्र इतना
बात नहीं है कि सर्वोच्च सद्ग्रन्थ श्रेणी में आने वाले श्रीमद् भागवद्महापुराण की
बात है । नारद जैसे महापुरुष की है जो सृष्टि के सर्वोच्च मन्त्रवेत्ता हैं ।
भक्ति अपने दो पुत्रों ज्ञान और वैराग्य को वृद्धावस्था और मरणासन्न की स्थिति में
देखकर आश्चर्यमय थी कि मैं माता होते हुये भी युवा हूँ तथा पुत्र होते हुये ज्ञान
और वैराग्य वृद्ध तथा मरणासन्न क्यों ? तो नारद से भी मुलाकात हुई । यही
प्रश्न नारद बाबा के समक्ष भी उत्पन्न हुआ कि आखिरकार ज्ञान-वैराग्य का यथार्थ
रहस्य क्या है ? नारद जी सृष्टि के सर्वोच्च मन्त्र-सिद्ध थे । लगे
ज्ञान-वैराग्य को ठीक करने वेद-मन्त्र, वेदान्त-मन्त्र, गीता रामायण आदि
जितने भी किस्म के मन्त्र थे सबको ज्ञान-वैराग्य के कान में कह एवं फूँक डाले
परन्तु ज्ञान-वैराग्य न तो ठीक हो सके और न तो ज्ञान-वैराग्य का कुछ रहस्य ही पता
लग पाया । हाँ, कुछ सगबगाये जरूर परन्तु उससे कोई लाभ नहीं हुआ
जिससे मन्त्रों के गुमानी नारद जी खुद आश्चर्य में पड़ गये कि अरे ! मन्त्रों की
क्षमता इतनी भी नहीं कि ज्ञान-वैराग्य को ठीक कर देवें या नहीं ठीक तो कम से कम
ज्ञान-वैराग्य का रहस्य तो बतला देवें । नारद जी आश्चर्यचकित ही नहीं रहे, बल्कि
मन्त्रों के पीछे गंवाये हुये समयों, किये हुये तपों पर अफसोस करने लगे । सब
कुछ के बावजूद भी ज्ञान-वैराग्य के रहस्य के लिये परिश्रम करना एवं परेशानी उठानी
पड़ी जिसे आप पाठक बन्धुाअें को अगले शीर्षक ‘वैराग्य का
रहस्य’ में मिलेगा ।
अन्ततः मैं (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी
परमहंस) बतलाऊँ कि नारद जी जैसे मन्त्र-सिद्ध, मन्त्र वेत्ता
के मन्त्रों से भी ज्ञान-वैराग्य का पता नहीं चला पाया जबकि मन्त्र के सर्वोच्च पद
पर नारद, योग-साधना या अध्यात्म के सर्वोच्च पर पर शंकर जी तथा ज्ञान के सर्वोच्च
पद पर श्रीविष्णु, राम, कृष्ण जी महाराज थे और अब तक हैं भी ।
वैराग्य के सर्वाेच्च पद को ऋषभदेव तथा सेवा का सर्वोच्च पद हनुमान और प्रेम का
सर्वोच्च पद राधा तथा भक्ति का नारद भी सुशोभित किया । त्याग में लक्ष्मण तथा भाव
में भरत का नाम है । मन्त्र से भक्ति कदापि नहीं हो सकती है ।
साधना-प्रधान मन्त्र
सद्भावी साधना प्रेमी बन्धुओं ! साधना प्रधान
मन्त्र से तात्पर्य ऐसे मनत्रों से है जिसे स्वास-निःस्वास द्वारा तथा प्राणायाम
एवं धारणा-ध्यान आवश्यकतानुसार या सिद्धि हेतु आसन भी मुख्यता इन चारों की संयुक्त
प्रक्रिया ही से है अर्थात् साधना प्रधान मन्त्र से तात्पर्य ऐसे मन्त्र से है
जिसको मात्र साधना के माध्यम से ही स्वास-निःस्वास द्वारा जपा जाता है । इसे ही
अजपा-जप भी कहा जाता है । साधना-प्रधान मन्त्रों में सर्वोपरि तथा सर्वोत्कृष्ट
मन्त्र, ह ँ्सो मन्त्र ही माना गया है और है भी । सोऽहँ मन्त्र नाजानकार एवं
नासमझदारों के लिये है जो ह ँ्सो तथा सोऽहँ के भेद को या रहस्य को नहीं जानने वाले
हैं । सोऽहँ जबर्दस्त अहंकारिक मन्त्र होता है यह अहं को शक्ति के सम्पर्क से
शक्तिशाली बनाता है जो अध्यात्म के मूलभूत अभीष्ट लाभ के प्रतिकूल होता है क्योंकि
अध्यात्म का मूलभूत सिद्धान्त अहं को आत्म-ज्योति रूप ‘सः’ में
विलय करना होता है जबकि नाजानकार एवं नासमझदार आध्यात्मिक सन्त-महात्मन् बन्धु ‘सः’
को
ही अहम् में मिलाकर ‘वही मैं’ कह-कह कर
जबर्दस्त अहंकारी हो गये हैं जिन्हें अब तत्त्वज्ञान या परमतत्त्वम्
(आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म, परमात्मा से भी
मतलब नहीं रह गया है मात्र परमात्मा से उत्पन्न आत्म-ज्योति रूप आत्मा या
ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म दर्शन मेें ही मशगूल या आनन्द मग्न हैं उन्हें यह भी
नहीं मालूम कि साधना के लाभ के स्थान पर प्रतिकूल रूप में अहंकारिक क्रिया होकर
जबर्दस्त हानि हो रही है ।
सद्भावी साधनाभिलाषी बन्धुओं से मुझे स्पष्टतः
यह बतलाना है कि साधना प्रधान मन्त्र से लाभ लेना है तो ह ँ्सो रूप अजपा-जप ही
यथार्थतः लाभदायी जप है जो जीव को शिव में परिणत करता है । परन्तु चार दिन साधना
नहीं किये शिव-शंकर ही हो गये, ऐसा भाव कदापि नहीं बनाना चाहिये ।
विद्यालय में जाकर चार दिन चार अक्षर सीख गये इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि आप
सर्वोच्च शिक्षित हेतु शिक्षा में प्रवेश पा लिया । ठीक वही हाल साधना में लोग
करते हैं । चार दिन साधना नहीं करते, परन्तु थोड़ी-मात्रा में ज्योति का
साक्षात्कार गुरु की कृपा-दया से हो गया तो शिव-शंकर ही बन जाते हैं । यह एक
जर्बदस्त मिथ्याहंकार है । ऐसा कदापि नहीं विचार में लाना चाहिये और न कहना चाहिये
कि हम शिव-शंकर से कम नहीं है क्योंकि शिव-शंकर ही साधना के उद्गम और लय रूप होते
हैं । सोऽहँ जप अशुद्ध तथा ह ँ्सो जप शुद्ध होता है । सोऽहँ कदापि न जपें ह ँ्सो
जप ही मान्य जप है । शिव सोऽहँ-ह ँ्सो जप से कोई नहीं बन सकता है । हाँ वह सिद्ध,
समर्थ
गुरु उस रूप में देखा जाय, हालांकि वह भी शिव-शंकर है नहीं ।
शिव-शंकर तो योग-साधना या अध्यात्म की अंतिम परिणति या लय रूप है । अधिकाधिक
संख्या में लोग शिवोऽहँ, अ,उ,म
आदि आदि मनमाना मन्त्र प्रतिपादित करके अजपा-जप रूप में जपते हैं जो ह ँ्सो का ही
अशुद्ध रूप है । नाजानकार और नासमझदारों का विधान है ।
ह ँ्स का सोऽहँ आदि अनेक रूप में मनमाना
जप-विधान का ही परिणाम है कि आज उसी अजपा-जप विधान को ही मिथ्याज्ञानाभिमानवश
तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान आदि आदि घोषित कर-करा कर सद्गुरु-ज्ञानदाता तथा
सन्त-महात्मा के स्थान पर अवतारी बनते जा रहे हैं । जिसका फल या परिणाम है कि आज
सैकड़ों-सैकड़ों भगवान् का अवतार हो गया है जो लोगों के भावनाओं को इतना ठेस
पहुँचा रहा है कि शंकर बनते-बनते भगवान् के अवतार ही बनने लग गये हैं जिसका परिणाम
है कि आज पूर्णावतार को भी कम परेशानियों, कम कठिनाइयों, विरोधों तथा कम
संघर्षों का सामना नहीं करना पड़ रहा अर्थात् जबर्दस्त संघर्षों से गुजरना पड़ रहा है जो नहीं पड़ना चाहिये ।
यह सारा परिणाम ह ँ्सो के स्थान पर सोऽहँ, शिवोऽहँ, अ,उ,म
गु - रु आदि जाप करने-कराने तथा मिथ्याज्ञानाभिामानवश मिथ्याहंकारिक रूप अवतारी
बन-बन कर जनमानस से धार्मिक सद्भाव को ही समाप्त कर-करा दिये हैं । जिसमें आज
सत्य-धर्म की स्थापना में इतनी कठिनाइयों और संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है
जितनी कभी नहीं पड़ा था ।
साधना प्रधान मन्त्र मात्र ह ँ्सो रूप
स्वास-निःस्वास रूप अजपा-जप ही यथार्थतः अजपा-जप क्रिया सही या ठीक है शेष सभी
अशुद्ध, मनमानी एवं अहंकार परक है । अहंकारिक भावना से उत्पन्न होती है
अहंकारिक भावना में लीन रहते हुये अहंकारिक भावना में ही लय भी हो जाते हैं । शिवोऽहँ आदि किसी भी
मन्त्र का जप करना योग या आध्यात्मिक उपलब्धि के प्रतिकूल होना है इसलिये नहीं
ज्ञान तो योग ही सही; परन्तु योग में भी योग का सही रूप ह ँ्सो ही
होना चाहियेे । ह ँ्सो ही अहं को सः में मिलाने की पद्धति है सोऽहँ आदि नहीं ।
शरीर प्रधान मन्त्र
सद्भावी मन्त्रवेत्ता बन्धुओं ! शरीर प्रधान
मन्त्र से तात्पर्य ऐसे मन्त्रों से है जो
शरीर विशेष नामों से उच्चारित होता है । जैसे ॐ नमः
शिवाय, गणेशाय नमः, रामाय नमः, कृष्णाय नमः,
हनूमतये
नमः, दुर्गायै नमः आदि आदि ।
शरीर प्रधान मन्त्रों में विशेषतः उन्हीं
शरीरों का दाखिला या प्रवेश मिलता है जो शरीर ज्ञान-वैराग्य तथा योग-साधना या
अध्यात्म में लीन होकर सांसारिकता से बिल्कुल ही विमुख होकर अथवा सांसारिकता का
पूर्णतः त्याग करके ज्ञान के पीछे प्रेम, सेवा, भक्ति तथा
आध्यात्मिक सन्त-महात्मा के निर्देशन में साधना के पीछे अपने को पूर्णतः लगा दिया
हो, वही शरीर सत्ता-शक्तिमय होकर आजीवन रहते हुये संसार में शरीर त्याग
कर सत्ता-शक्तिमय होकर रहने लगता है, उन्हीं के मन्त्रों (शरीर वाची) से सिद्धि या अभीष्ट लाभ उपलब्ध हो पाता
है अन्य जो शरीर सत्ता-शक्ति से युक्त होकर भी सांसारिक बन जाता है पहले तो वह
मन्त्रों में प्रवेश ही नहीं पाता, यदि प्रवेश पा भी गया तो उस शरीरवाची
मन्त्र से सिद्धि कदापि नहीं मिल सकती है । हाँ, हल्का-फुल्का
छःूः मन्त्रर वाला कार्य (भूत-प्रेम वाला कार्य) हो सकता है ।
शरीर प्रधान मन्त्र सदा ही भूत-प्रधान हुआ करता
है । मन्त्र-विधान अज्ञानता में शान्ति का सहारा मात्र विशेष अभीष्ट सिद्धि गौण
होता है । मन्त्र विधान जढ़ता और मूढ़ता का ही विधान होता है इसलिये यह वह पद्धति
है जिसमें ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ मुहावरा
भरपूर या सटीक बैठ जाता है अर्थात् अत्यधिक परेशानियों और अत्यधिक कठिनाइयाँ उठाने
पर भी तुच्छ लाभ ।
मन्त्र प्रधान बन्धु अपनी जढ़ता एवं मूढ़ता का
ऐसा प्रदर्शन करते हैं जो जान-देख कर विचित्र आश्चर्य की अनुभूति होने लगती है ।
इनकी जढ़ता ही इनको मूढ़ता में परिवर्तित कर रही है जिससे ये भूत प्रधान होते जा
रहे ळैं पहले भी ऐसे ही भूतप्रधान हो गये थे जिससे श्रीकृष्णजी सदा ही मनुष्य को
भूत प्राणी कहते रहे हैं । आज भी ये भूत प्राणी कहलाने के योग्य हो गये है।
क्योंकि वर्तमान में इन लोगों को विश्वसनीयता ही नहीं हो पाती है क्योंकि इन्हें
अपने शुद्धता-पवित्रता, कर्मों तथा मनन-चिन्तन निदिध्यासन रूप पूजा-पाठ
का अहंकार जगा रहता है जो वर्तमान में विश्वसनीयता नहीं होने देता क्योंकि
विश्वसनीयता वर्तमान में हो जाने पर अहंकार का सफाया हो जायेगा । इसलिये अपने
मान-सम्मान रूपी अहंकार न चला जाय इसलिये वर्तमान महापुरुष के सम्पर्क में तो जाते
ही नहीं, अवतारी सत्पुरुष के सम्पर्क और शरण में जाने में भी संकोच होता है
जिसके परिणाम स्वरूप ज्ञान-वैराग्य तथा साधना या अध्यात्म की यथार्थता को जान और
समझ भी नहीं पाते हैं तथा अपनी मर्यादा न जाने पाये इसलिये मनमाना विधानों को
प्रतिपादित करके समाज में कहा करते हैं ।
जब रामचन्द्र जी तथा श्रीकृष्णचन्द्र जी थे तब
तो ये लोग उन्हें स्वीकार नहीं किये । श्रीरामचन्द्रजी के समय श्री विष्णुजी को
खोज रहे थे और जब श्री रामचन्द्र जी अपने लक्ष्य को पूरा करके शरीर छोड़कर चले गये
और पुनः श्रीकृष्णजी के शरीर के रूप में आये तो श्रीकृष्ण जी को भी नहीं स्वीकार
किये, उस समय श्रीरामचन्द्र जी को खोजने लगे । जब श्रीविष्णुजी रहे तब
निराकार को खोज रहे थे । इस प्रकार तत्काल जब सत्ता-शक्ति शरीर धारण कर भूमण्डल पर
रहती ही है तब तो ये जढ़ी लोग नाना तरह से विरोध और संघर्ष करते हैं और चले जाने
पर हाय-हाय करते है। । वही हाल आज भी है । ये सभी ‘भूत प्रधान’
होते
हैं ।
बीजाक्षर मन्त्र
सद्भावी मन्त्र प्रेमी बन्धुओं ! बीजाक्षर दो
शब्दों के मेल से बना है बीज और अक्षर अर्थात् ऐसे मन्त्र जो बीज रूपी अक्षरों में
हो । सृष्टि में प्रत्येक वस्तु का विकास अथवा व्यक्ति का विकास बीज से ही होता है
। ऐसा कोई व्यक्ति या वस्तु नहीं होगा जिसका बीज रूप या मूल से विकसित होकर ही
व्यक्ति या वस्तु रूप बना या हुआ है । शाक्त-मत तथा तन्त्र-विधान विशेषतः बीजाक्षर
मन्त्र विधान ही होता है । देवियों के मन्त्र खासकर बीज रूप में होते हैं जैसे
दुर्गा का बीजाक्षर मन्त्र है -- ‘ॐ ऐं हृीं क्लीं
चामुण्डाऐ विच्चैः।’ इसी प्रकार पुरुष वाची ये बीजाक्षर रां रामाय
नमः में रां, कृं कृष्णाय नमः में कृं, हं
हनूमतये नमः में हं तथा शिव-शक्ति का बीजाक्षर मन्त्र ह ँ्सो है । इसी प्रकार जिन
मन्त्रों का उच्चारण बजाय नाम के मात्र अक्षर में सांकेतिक रूप में हो वह बीजाक्षर
मन्त्र कहलाता है ।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही शब्दों का ही उद्बुद्
मात्र है तथा शब्दों के उद्बुद मात्र से ही उत्पन्न हुआ है तथा शब्द के उद्बुद के
रूप में ही लय भी होता है । सत्ता और शक्ति भी मूलतः शब्द रूप ही है । व्यक्ति और
वस्तु भी शब्द से ही क्रियाशील एवं शब्दों से ही चालित होती है तथा शब्द रहित हो
जाने पर निष्क्रिय हो जाती है । अध्यात्म भी ब्रह्म-शक्ति को शब्द और ज्योति ही
स्वीकार करता है तथा विज्ञान भी शक्ति को ध्वनि और प्रकाश ही स्वीकार कर-करा रही
है । परमात्मा भी तत्त्वम् शब्द रूप ही है । ज्ञान-योग तो शब्द पर आधारित है ।
सृष्टि के आदि के पूर्व ही परमतत्त्वम्
(आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप बचन भी शब्द रूप ही है । परमब्रह्म या
परमेश्वर या परमात्मा आदि नामों से जाना जाने वाला भगवान् भी ‘आत्मतत्त्वम्’
रूप,
शब्द
रूप ही होता है । सृष्टि का सम्पूर्ण मैं-मैं-तू-तू शब्द रूप ही है क्योंकि इसका
उत्पत्ति और लय रूप तत्त्वम् रूप परमात्मा भी तो शब्द रूप ही शब्दों की रचना
अक्षरों के मेल से बनता या होता है ।
बन्धुओं ! अक्षर का दो रूप या अर्थ होता है
अविनाशी तथा दूसरा--- ‘अक्षर वह आकृति विशेष है जिसके माध्यम से
सत्ता-शक्ति तथा व्यक्ति-वस्तु क्रियाशील तथा गति-शील होते हैं तथा जिसके मेल से
शब्दों की उत्पत्ति शब्दों के माध्यम से आपसी व्यवहार होती हो’ है
। श्रीकृष्ण ने भी ‘अक्षरं ब्रह्म परमं’ परमब्रह्म भी
अक्षर रूप में अविनाशी ब्रह्म ‘परम’ है अर्थात् ‘परम’
ही
वह अविनाशी ब्रह्म है । जैसे सबका आत्मा है तो मेरा परमात्मा, सभी
का ईश्वर है तो मेरा परमेश्वर, सभी का ब्रह्म है तो मेरा परमब्रह्म, सभी का भाव है
तो मेरा परमभाव, सभी का हंस है तो मेरा परमहंस, सभी
का जड़-तत्त्व और चेतन-तत्त्व है तो मेरा परमतत्त्वम् रूप ‘आत्मतत्त्वम्’
है
। अर्थात् मैं ‘परम’ वाला हूँ ।
बन्धुओं सत्ता-शक्ति तथा व्यक्ति-वस्तु मूलतः
शब्द रूप ही होता है और शब्द मूलतः अक्षर रूप होता है यानी सारा ही ‘अक्षर’
रूप
है जिसमें जिस सत्ता-शक्ति, व्यक्ति-वस्तु सर्वप्रथम जिस अक्षर के
माध्यम से बनना या होना शुरू हुआ वह ‘अक्षर’
उसका
‘बीज’ अक्षररूप ‘बीजाक्षर’
कहलाया
। तत्त्व का शोध करके प्रभावी रूप में लगातार जप के माध्यम से सिद्ध व निश्चित कर
देना मन्त्र कहलाया ।
सद्भावी मन्त्रप्रेमी बन्धुओं ! मन्त्रों का
यथार्थ लाभ विश्वसनीयता और भाव प्रधान होता है । उसमें भी यदि कहीं यथार्थतः
बीजाक्षर से मुलाकात हो गया । यानी बीजाक्षर मन्त्र विश्वसनीयता के साथ भाव से
यथार्थतः जप कर दिया जाय तो अभीष्ट-पूर्ति में सन्देह की गुंजाइश ही नहीं होता है
। परन्तु एक बात याद रखने की है कि मन्त्र से न तो ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है और
न तो मन्त्रों से भक्ति ही की जा सकती है । मन्त्र से परमब्रह्म या परमेश्वर या
परमात्मा तथा ब्रह्म या ईश्वर या आत्मा की उपलब्धि कदापि नहीं हो सकती है ।
मन्त्रों में ज्ञान और वैराग्य के रहस्य को
जानने-जनाने-समझने- समझाने की क्षमता ही नही होती है । मन्त्र देवता तथा देवी
प्रधान होता है। मनुष्य और देवी-देवताओं के बीच आपसी सम्बन्ध को स्थापित करना तथा
तथाकथित पूजा-पाठ तथा उससे अभीष्ट पूर्ति लाभ करते हैं । मन्त्र के माध्यम से ही
देवी-देवता से सम्बन्ध भी सम्भव है । ज्ञान-परमात्मा या परमब्रह्म या परमेश्वर से
सम्बन्ध स्थापित करने वाला होता है; योग-साधना या अध्यात्म, आत्मा
या ब्रह्म या ईश्वर से सम्बन्ध स्थापित कराने वाला होता है; स्वर-संचार-साधना
या स्वरोदय ब्रह्म-शक्ति या आत्म-शक्ति या दिव्य-शक्ति या स्वरसती (स्वर-शक्ति) से
सांसारिक इच्छा-पूर्ति या अभीष्ट पूर्ति कराने वाला तथा मन्त्र देवी-देवताओं से
सम्बन्ध स्थापित कराने तथा उससे सांसारिक अभीष्ट कामनाओं की पूर्ति कराने वाला ही
होता है । तन्त्र का भी आधार मन्त्र ही होता है । इस प्रकार संसार में
देवी-देवताओं से अभीष्ट पूर्ति में ‘मन्त्र’ की भी एक ‘अहं
भूमिका’ है बशर्ते श्रद्धा और विश्वसनीयता हो ।