सरस्वती नहीं, यथार्थतः स्वरसती

सरस्वती नहींयथार्थतः स्वरसती
सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! जैसा कि सर्वविदित है कि विद्या की अभीष्ट देवी सरस्वती हैं । विद्या- अक्षरों के माध्यम से सत्ता-शक्ति, व्यक्ति-वस्तु की जानकारी कराने वाली पद्धति ही विद्या है । अक्षरों का बीज रूप स्वर है तथा स्वर की उत्पत्ति आत्म-शक्ति से होती है । आत्म-शक्ति ही ब्रह्म-शक्ति भी कहलाती है । आत्म-शक्ति या ब्रह्म-शक्ति ही जब क्रियाशीलता या गतिशीलता गति-शील होती है तो यही क्रियाशीलता या गतिशीलता ही स्वर तथा उसमें कार्य करने वाली शक्ति ही बाद में सती कहलायी तथा दोनों का संयुक्त रूप ही स्वरसती कहलायीं । इस प्रकार आत्म-शक्ति ही ब्रह्म-शक्ति, ब्रह्म-शक्ति ही शिव-शक्ति ही स्वरसती हुई । शक्ति और सती लगभग पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त होता है सद्ग्रन्थ भी यही समर्थन देते हैं । शिव जी ने स्वतः ही कहा है कि स्वास लेने (पूरक) में सःरूप शक्ति शरीर में प्रवेश करती है तथा प्रस्वास-निकास (रेचक) में अहंरूप शिव (जो तत्त्वज्ञान में जीव तथा योग में शिव) का वास होता है । जैसा कि ------
हंकारो निर्गमें प्रोक्तः सकारेण प्रवेशनम् ।
हंकारः शिव रूपेण सकारः शक्तिम् ।।
सद्भावी बन्धुओं ! जैसा कि योग-साधना या अध्यात्मवेत्ता महानुभाव भी जानते हैं कि जीव रूप अहंतथा आत्म-ज्योति रूप सःया आत्मा का मिलन ही योग कहलाता है । शरीर में स्वास प्रवेश के समय तो आत्म-ज्योति रूप आत्म-शक्ति या ब्रह्म-ज्योति या ब्रह्म-शक्ति में से शक्तिरूपा सःप्रवेश करती है तथा जीव रूप अहंप्रस्वास या निकास या रेचक में मूलाधार स्थित शिव-लिंग से ऊपर उठता है जो अज्ञात् अवस्था में तो महत्व न रहते हुये शक्तिहीन रूप सामान्य जीवधारी मानव रहता है परन्तु योग-साधना या अध्यात्मवेत्ताओं के सम्पर्क से जब इसका महत्व जान लेते हैं और साधनाभ्यास करने लगते हैं तो उस साधना के माध्यम से स्वास प्रवेश (पूरक) से सः रूप शक्ति तथा प्रस्वास या निकास या रेचक से अहंरूप जीव बाहर होता है।  अहंरूप जीव सःरूपा शक्ति से युक्त होकर जीव भी शिव (हँसो) हो जाता है । तत्पश्चात् जीव, जीव रूप में न रहकर शिव  रूप में रहने लगता है । सामान्य मानव  स्वास-प्रस्वास की सामान्य प्रक्रिया, सामान्य प्रक्रिया भी नहीं रह जाती है बल्कि शिव-शक्ति का मिलन रूप दिव्यता से युक्त होकर वही मानव शरीर जो सामान्य मानव के रूप भी एक देहधारी शिव कहलाने लगती है । जो मात्र बाध्य दो दृष्टियों से युक्त थी वह दिव्य-दृष्टि रूपी त्रिनेत्र शिव रूप तीसरी दिव्य-दृष्टि से युक्त भी हो जाती है जो मानव इन्द्रियों मात्र से कार्य करता था अब अदृश्य सिद्धि रूप शक्ति भी कार्य करती या इच्छानुसार कार्य होने लगता है जैसा कि शिव का होता है । अन्ततः यथार्थतः दिखलायी दे रहा है कि आत्म-शक्ति ही ब्रह्म-शक्ति होती है तथा ब्रह्म-शक्ति ही शिव-शक्ति और शिव-शक्ति ही स्वर-शक्ति (ह ँ्सो) कहलाती है, जो बाद में स्वरसती कहलाने लगी । उसी स्वरसती (स्वर-शक्ति) का ही स्वर-संचार-साधना की अनभिज्ञता के कारण ही सरस्वती नाम से कहलाने लगीं । इस प्रकार सरस्वती नाम का उच्चारण करना अथवा विद्या की अभीष्ट देवी सरस्वती कहना यथार्थता की दृष्टि में ठीक नहीं है इसलिये सरस्वती के स्थान पर उसका यथार्थ नाम स्वरसती (स्वर-शक्ति) ही कहना या उच्चारिता करना चाहिये । यदि आसान तथा सुविधा की दृष्टि से भी सरस्वती कहाजाता हो, तो आसानी तथा सुविधा के लिये यथार्थताको समाप्त नहीं करना चाहिये क्योंकि कभी भी यथार्थता से ऊँची या उत्तम कुछ भी होता ही नहीं, क्योंकि यथार्थता सत्यता का ही पर्याय रूप होता है, और सत्य ही सर्वोच्च एवं सर्वोत्तम् होता है ।

ब्रह्मा स्वरसतीमें तथा सती शिव में
सद्भावी बन्धुओं ! जैसा कि पिछले प्रकरण में देखा गया है कि जो आत्म-शक्ति है वही ब्रह्म-शक्ति है, जो ब्रह्म-शक्ति है वही शिव-शक्ति है और जो शिव-शक्ति है वही स्वर-शक्ति है; पुनः जो स्वर-शक्ति है वही ह ँ्सो रूप शिव है वही ही स्वर-शक्ति है । तत्पश्चात् जो स्वर-शक्ति है वही ही स्वरसती है । शक्ति ही सती है तथा सती भी शक्ति ही है । फिर भी शिव से रहित शक्ति भी मात्र सती या सामान्य स्त्री रूपा थी जो शिव के मेल-मिलाप से शिव-शक्ति कहलायीं । ठीक इसी प्रकार शक्ति से (ह ँ्सो से) रहित ब्रह्मा भी एक सामान्य मानव रूप में थे जो हंसावतार से ह ँ्सो की दीक्षा (योग-साधना) पाकर ही ब्रह्मा ह ँ्सो रूप आत्म-शक्ति या ब्रह्म-शक्ति या स्वर-शक्ति रूपा स्वरसती से युक्त हुये । यही कारण है कि सृष्टि-पद्धति रूप विद्या की यथार्थता ब्रह्मा में न जाकर ब्रह्म ही विद्या की अभीष्ट देवी रूपा स्वरसती में हुये तथा शिव के बगैर शक्ति भी सती रूपा सामान्य  नारी जैसी थी जो शिव से ह ँ्सो रूप ब्रह्म (शिव) की यथार्थता से युक्त होकर ही शिव के साथ शक्ति कहलायीं । यही कारण है कि सःरूपा शक्ति भी योग साधना रूप अध्यात्म से रूप युक्त योगी-साधक रूप आध्यात्मिक शिव कहलाता है तो योग-साधना से पृथक् स्वास रूप में सःरूप शक्ति भी सामान्य ही थी परन्तु शिव रूप सिद्ध योगी से ही इनकी मर्यादा जानी जाती है इसलिये शक्ति से युक्त रहते हुये भी सः और अहं मिलकर सोऽहँ-ह ँ्सो रूप शिव ही कहलाते हैं । परिणामतः स्वरसती में ब्रह्मा तथा शिव (ह ँ्सो) में शक्ति समाहित होती है । 

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