गुण-विभाग

गुण-विभाग
सद्भावी मायावी बन्धुओं ! गुण-दोष महामाया की देन है । जड़-चेतन तो परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) शब्द रूप शब्द-ब्रह्म से उत्पन्न है तथा शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म के प्रतिनिधि के रूप में तथा गुण-दोष परमब्रह्म या परमात्मा की संकल्प शक्ति रूपा आदि-शक्ति या मूल-प्रकृति से उत्पन्न तथा उसके प्रतिनिधि के रूप स्थित है । इस प्रकार चेतन-जड़ तथा गुण-दोष से ही सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति हुई है । चेतन और जड़ तो व्यक्ति और वस्तु रूप धारण कर-कराकर गुण-दोष रूप दो पद्धति से कर्म करते तथा भोग भोगते रहते हैं । यही सृष्टि रूप है ।
आदि-शक्ति रूप महामाया अपने पति या स्वामी रूपी परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा-खुदा-यहोवा या गाॅड के निर्देशन या अध्यक्षता में गुण-दोष रूपी दो विधानों से चालित करती रहती है । सृष्टि के संचालक तो परमप्रभु है परन्तु संचालिका आदि-शक्ति रूपा महामाया है । सीधे सृष्टि से सम्बन्ध महामाया का ही रहता है परमात्मा का नहीं।  परमात्मा तो युग-युग में युग-परिर्वत के बेला में ही अपने परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरित होकर युग के उतार तथा युग के चढ़ाव को यथास्थान यथोचित रूप में स्थित करके युग-परिवर्तन के झोंका में समाप्त हुये धर्म के यथार्थ रूप को पुनः सत्य-धर्म की स्थापना करते हुये धर्म के स्थान पर आडम्बर एवं पाखण्ड रूप तथा मिथ्याभिमान एवं मिथ्याज्ञानाभिमान रूप अधर्म को समूल समाप्त करते हुये दुष्टों का सफाया करते हुये सज्जन की रक्षण-व्यवस्था उपलब्ध कराकर पुनः सत्पुरुषों का राज्य कायम कर अपने दिव्य आकाश रूप परमधाम को वापस सिधार जाते है। । शेष समयों में महामाया ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उत्पत्ति कर उन्हीं के द्वारा गुण-दोष रूपी दो पद्धति को लागू या प्रदान कर सृष्टि का चालन-संचालन करती रहती है । यही क्रम सृष्टि के आदि से चला आ रहा है तथा भविष्य में भी चलता रहेगा ।
गुण और दोष क्या है तथा इसकी क्रियाशीलता एवं गतिशीलता कि  प्रकार होती है तथा इसको जानने-समझने तथा पहचानने की क्या प्रक्रिया है ? चेतन और जड़ दो रूप में सृष्टि की सारी क्रिया-कलाप आधारित है । व्यक्ति से चेतन तथा वस्तु रूप से जड़-पदार्थ कार्य करते एवं गतिशील होते रहते हैं । व्यक्ति सत्ता रूप में तथा वस्तु साधन रूप में प्रयुक्त होते हैं । व्यक्ति में अहम् रूप जीव चेतन का प्रतिनिधि तथा शरीर जड़ का प्रतिनिधि होता है । अहम् रूप जीव चेतन रूप आत्मा या या ब्रह्म या ईश्वर का ही अंश रूप में रहते हुये आत्मा या ब्रह्म या ईश्वर तथा जड़-शरीर तथा जड़-जगत् के बीच मध्यस्थता के रूप में क्रियाशील होता रहता है । अहम् रूप जीव ही वह माध्यम या मध्यस्थ होता है जो आत्मा और शीरर  के मध्य सम्बन्ध स्थपित करते-कराते हुये कर्म करना तथा भोग भोगने के माध्यम से आपसी व्यवहार कायम करता रहता है ।
जीव ही मुख्यतः आभासित रूप है जो सांसारिक बनकर चेतन-आत्मा को नाना योनियों में काल और कर्म के बन्धन में बाँधकर महामाया द्वारा घुमाया जाता रहता है । जब जीव चेतन-आत्मा के प्रति अभिमुख होने वाला कार्य करता है तो वह गुण है तथा चेतन-आत्मा से विमुख तथा जड़-प्रधान बनने-बनाने वाला कार्य या कर्म करता है तो वह दोष है । गुण-दोष को आकलन की यह पहली पद्धति है । अब आइये गुण-दोष के आकलन या जाँच-पड़ताल या निरीक्षण-परीक्षण की दूसरी पद्धति देखा जाय। सृष्टि की समस्त क्रियाशीलता को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित कर दिया गया है अथवा हो गया है जिसमें पहला--- सतोगुण; दूसरा ---रजोगुण तथा तीसरा--- तमोगुण ।  गुण-प्रधान विधान सतोगुण कहलाता है; गुण-दोष दोनों मिश्रित विधान-रजोगुण तथा दोष-प्रधान विधान तमोगुण प्रधान विधान कहलाता है ।
आत्म ज्योति रूप आत्मा संसार में शरीरों के सम्पर्क में आकर जीव का रूप धारण कर संसार में विचरण करती है तब से जीव को शरीर रहते गुणों के अनुसार ही कर्म करना और भोग भोगना पड़ता है । जीव पुनः जब तक आत्मामय और परमात्मामय नहीं हो जाता है तब तक तो इसे गुणमय ही रहना पड़ता है । अर्थात् जीवधारी व्यक्ति जब तक जीवधारी रहेगा तब तक उसे गुणों में ही वर्तना या अपनी करनी-भरनी से गुजरनी पड़ेगी । परन्तु ऋषि-महर्षि, योगी-यति, प्राफेट्स, पैगम्बर तथा वे समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्मा जो वास्तव में अध्यात्म को ही अपना शरीर समर्पित कर चुके हो; नखड़ा-फड़ोसों की बात नहीं; तथा उस जीव की तो कोई बात ही नहीं है जो कि परमात्मा के पूर्णावतार रूप अवतारी सत्पुरुष से तत्त्वज्ञान पद्धति यथार्थतः परमात्मा को तत्त्वतः या पूर्ण तात्त्विक रहस्यों के साथ जान, देख तथा बात-चीत करते हुये पहचान कर मुसल्लम ईमान के साथ परमात्मा के सेवार्थ परमात्मा द्वारा प्राप्त तन-मन-धन को परमात्मा को ही समर्पित करते हुये परमात्मा के अनन्य प्रेम, सेवा, भक्ति हेतु शरणागत होता हो । वह गुणों से परे हो जाता है ।

सद्भावी मायावी बन्धुओं ! गुण और दोष यही दो काल और कर्म के चक्र में होता है । जो जीवधारी व्यक्ति है वह संसारी होगा ही और जो व्यक्ति सांसारिक मोह रूपी माया - जाल में फंसकर संसारी बन गया है वही मायावी यानी माया से युक्त या माया में फंसने के कारण ही वह व्यक्ति महामाया के अधीन हो जाते हैं । महामाया की गति -विधि और क्रिया-कलाप विचित्र ढंग का होता है जिसको जानना-समझना आसान बात नहीं है ब्रह्मा, शंकर, नारद भी महामाया के अधीन हो अपने क्रिया-कलापों को करते रहते हैं ।  महामाया भी कोई सामान्य शक्ति-सत्ता की बात नहीं है । यह परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या यहोवा या गाॅड या अल्लातआला की ही अंगभूता, अर्धांगनी रूपा आदि-शक्ति होती है । यही पूरी सृष्टि की संचालिका होती है जो अपने पति या स्वामी रूप परमब्रह्म, परमेश्वर के निर्देशन और आज्ञाओं में रहते हुये सृष्टि-संचालन का कार्य-भार सम्भालती है । उसी का प्रतिनिधि रूप गुण और दोष है जो दोहरी रस्सी में बाँधकर काल-कर्म के जिम्मे पहुँचवा देती है और काल-कर्म शरीर-सम्पत्ति के माध्यम से जीवों को नाना योनियों में नचाता रहता है जिसमें जीव काल -कर्म के अनुसार नाचता रहता है और यह जीव तब तक संसार-चक्र में नाचता रहता है जब तक कि स्वयं परमप्रभु के विशेष कृपा करके भू-मण्डल पर अवतरित होकर अपने शरण में स्वीकार कर प्रिय-पात्र बनाते हुये विशेष कृपा रूप तत्त्वज्ञान नहीं दे देते तब तक । 

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