हम - हमार की समाप्ति, समाप्ति नहीं, अपितु परमात्मा की प्राप्ति

हम - हमार की समाप्तिसमाप्ति नहीं, अपितु परमात्मा की प्राप्ति
सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! हमऔर हमारइतनी छोटी विषय-वस्तु नहीं, इतनी छोटी बात नहीं कि फट से या झट से कह दिया जाय कि हमतो हमको ही मिटा चुके हैं हमारे शरीर में अब हमरह ही नहीं गया है । इस प्रकार कहते हुये चारों तरफ ही मिथ्याज्ञानाभिमानी मिलते रहते हैं । वास्तव में हमें तो हँसी आती है कि कितनी मिथ्या बात है कि जढ़ी यानी जड़-प्रधान शारीरिक और सांसारिक जड़कन में फंसा हुआ व्यक्ति भी अपने को हमसे मुक्त समझ रहा है । बन्धुओं हमकी करनी भी परमात्मा की ही होनी चाहिये क्योंकि यह एक सृष्टि का सर्वोत्तम एवं उत्कृटतम् परीक्षण है जिससे कि परमब्रह्म परमात्मा के सत्यता का परीक्षण किया जा सके या हो सके । हमया सृष्टि के सम्पूर्ण मैं-मैं-तू-तू को एक ही तत्त्वमय मैंसे निकलते एवं अन्त में विलय होते हुये बोध कराते हुये दर्शा दे, यह शक्ति-सामथ्र्य एकमात्र परमप्रभु रूप परमात्मा का ही है और किसी का नहीं । अध्यात्मवेत्ता भले ही वे अंशावतारी ही क्यों न हों परन्तु वे भी हमकी उत्पत्ति और विलय रूप का बोध नहीं करा सकते हैं, हाँ यह सम्भव है कि सः से मिलाकर ह ँ्सो रूप में दर्शा देवें पर हमइससे विलय नहीं हो जाता है बल्कि सः के सहयोग से और ही मिथ्याहंकार रूप जबर्दस्त एवं प्रभावी रूप में बढ़ जाता है । इतना ही नहीं अधिकाधिक संख्या में तो बन्धुओं को यह कहते हुये भी सुना देखा जाता हैै कि सब परमात्मामय ही है, सभी परमात्मा के ही रूप हे । परमात्मा कोई और थोड़े ही है । हमें तो उन बन्धुओं के आस्तिकता में ही घोर नास्तिकता दिखलायी देती है । उनके ज्ञान में पूर्णतः साक्षात् शैतान वाला मिथ्याज्ञानाभिमान स्पष्टतः झलकता है । ये धर्म के नाम पर घोर कलंक लगाने वाले अधर्म के ही विशेष प्रतिनिधि जैसे लगते हैं । वे अधर्म के प्रतिनिधि है भी जो धर्म को लुप्त करने-कराने हेतु मीठे जहरके रूप में रहते हैं ।

सद्भावी बन्धुओं ! हम-हमारकी समाप्ति समाप्ति नहीं, अपितु परमात्मा के परमभाव का ही प्राप्ति रूप है । परन्तु जढ.ी एवं मूढ़ अज्ञानी मानव जन नाजानकारी एवं नासमझदारीवश हम’-‘हमारकी स्थूल भाव में समाप्ति मान लेते हैं जबकि यह उनका भ्रममात्र है क्योंकि हमवे शरीर तथा हमारसम्पत्ति को समझते हैं तो यहाँ पर थोड़ा भी गौर किया जाय कि हम-हमारकी समाप्ति मात्र स्थूल भाव में ही होता, तो सम्पत्ति रूप हमार लेकर शरीर रूप हम को खतम यानी मार दिया जाता । परन्तु ऐसा न कभी हुआ है और न हो रहा है और न होगा । हाँ हमरूप जीव-जीवात्मा-आत्मा को आत्मतत्त्वम् रूप हमपरमात्मा का ही प्रतिबिम्बवत् बोध करते हुये उसी परमात्मा वाले हममें अपने हमका विलय रूप देखते और बोध करते हुये हम को विलय करना या समाप्त करना कहा जाता है जबकि सत्यता या वास्तविकता यह है कि हमसमाप्त नहीं होता है एक ही परमात्मा का हमदिखलायी देने लगता है तथा अपना और सारी सृष्टि का ही हमउसी का प्रतिबिम्बवत् स्पष्टतः बोध के साथ ही दिखलायी देने लगता है यही अपने हम की वास्तविक या यथार्थतः समाप्ति या परमात्मा रूप आत्मतत्त्वम् में अपने अहम् सोऽहँ-ह ँ्सो तथा सः को भी स्थित देखना है । तत्पश्चात् हमसे सम्बन्धित जितनी भी शरीर और सम्पत्ति रहती या होती है सब को ही उसी परमात्मा के प्रति श्रद्धा और निवेदन पूर्वक समर्पित करते हुये हमको हमाररूप बन्धन रूपी जाल से मुक्त कराकर सदा-सर्वदा परमात्मा के साथ ही परमात्मा के अनुसार ही परमात्मामय ही बिल्कुल ही सब कुछ करते हुये भी अकत्र्ता और सब कुछ भोगते हुये भी अभोक्तामय रहते हुये सदा राग-द्वेष मुक्त-जीवन जो दोष-रहित या निर्दोष जीवन पद्धति है से जीवन जीना चाहिये । आज का जढ़ी एवं मूढ़ मानव हमें यही कहने में लगा है कि अरे ! तन-मन-धन सब ले लेते हैं । बड़े ठग हैं भाई । यह कहाँ का विधान है कि तन-मन-धन सब ले लिया जाय । तो उन जढि़यों को कौन समझावे कि तन-मन-धन लेना और देना क्या है ? सबसे पहले यह जानने-समझने की कोशिश करना चाहिये तत्पश्चात् कोई बात करनी चाहिये । नाजानकारी और नासमझदारी तक बात करने से अच्छा तो चुप-चाप होकर सत्यान्वेषक रूप में यथार्थता की जानकारी और पहचान करना चाहिये । हमारे यहाँ तन-मन-धन मात्र लिया नहीं जाता है अपितु संकुचित और सीमित से विस्तृत और असीमित बनाया जाता है जो परमात्मामय का ही रूप हो जाता है । यानी जीवधारी को परमात्मा की धारणा वाला बनाते हुये सालोक्य मुक्ति, सामीप्य मुक्ति, सारुप्य मुक्ति तत्पश्चात् सायुज्य मुक्ति प्रदान की जाती है । परन्तु अनभिज्ञता वश तथा कामिनी और कांचन रूप जढ़तावश जढ़ी एवं मूढ़ हो जाने के कारण परमात्मा के परमभाव को न देखकर मात्र जड़ रूप स्थूल को ही देखने दिखाने में लग जाते हैं जो भ्रमित होने का मुख्य आधार होता है तथा भ्रम ही भटकता है और भटकना ही सृष्टि में चैरासी लाख योनियों में चक्कर लगाना है और यह चक्कर लाख, करोड़, अरब, खरब वर्षों तक भी यानी तब तक जब तक कि पुनः इसी प्रकार अवतार द्वारा तत्त्वज्ञान पद्धति से हमको परमात्मा में विलय तथा हमारको पुनर्वापसी रूप श्रद्धा निवेदन पूर्वक पूर्णतः समर्पित करते हुये परमात्मा के ही आश्रित मात्र यानी अनन्य प्रेम, अनन्य सेवा तथा अनन्य भक्ति के साथ शरणागत नहीं हो जाया जाता ।

अतः सद्भावी मानव बन्धुओं ! हम और हमार की समाप्ति समाप्ति नहीं अपितु परमात्मा के पूर्णतः आत्मतत्त्वम् रूप में उत्पत्ति और विलय रूप देखते हुये बोध करते हुये संकुचित दायरे से विस्तृत दायरे में होते हुये हमारसे सीमित जीवन को हमारको ही परमात्मा के साथ ही परमात्मा के परमभाव को जानते, देखते, समझते तथा बोध करते हुये परमात्मामय होकर रहना चाहिये । जीव की यह अन्तिम तथा परमगति है । 

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