‘सकाम-कर्म’

सकाम-कर्म
सकाम कर्म से तात्पर्य प्रतिफल की कामना सहित कर्म’ से है । कामनाओं की उत्पत्ति खासकर रजोगुण से होती है । कामना ही तत्त्वज्ञान या विद्या या तत्त्व  सत्यज्ञान या परमविद्या का शत्रु होता है । जिस प्रकार मल शीशा कोधुंआ अग्नि को तथा जेर गर्भ कोबादल सूर्य को ढक लेता है ठीक उसी प्रकार तत्त्वज्ञान को यह कामना या इच्छा ढक लेती है । हम आप सभी बन्धुओं को चाहिये कि सर्वप्रथम कामना या इच्छा को ही मारने या समाप्त करने की बात की जाय क्योंकि जब तक काम या इच्छा की समाप्ति नहीं होगी तब तक और की दौर बन्द नहीं होगी और और की दौर’ बन्द नहीं होगीऔर और की दौर’ जब तक बन्द नहीं होगी तब तक मुक्ति और अमरता तो मुक्ति और अमरता  हैशान्ति और आनन्द की अनुभूति भी नहीं हो पायेगी। इसलिये अत्यावश्यक है कि सर्वप्रथम काम या इच्छा को ही मारने की कोशिश करना चाहिये । जैसे ही काम’ की समाप्ति हो जायेगी जीव शान्ति और आनन्द की अनुभूति तथा मुक्ति और अमरता के बोध हेतु उत्प्रेरित होने लगेगा तथा जिज्ञासु और उत्कट जिज्ञासु भाव से जिससे वह व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के खोज में लगकर हासिल भी कर लेगा बशर्ते अवतार हुआ हो ।

सद्भावी सकामी बन्धुओं ! सकाम से तात्पर्य मजदूरी के बदले काम से है । अथवा कामना-पूर्ति हेतु पूजा-पाठ आदि करने से है । किसी भी कामना का सीधा सम्बन्ध इस संसार के अन्तर्गत शरीर और सम्पत्ति या व्यक्ति और वस्तु या कामिनी और कांचन से होता है । अपने साम्पत्तिक विकासशारीरिक विकासपारिवारिक हेतु किसी भी कामना से या इच्छा से कोई कार्य किया जाय वह स्वार्थ कहलाता है । अर्थात् अपने तथा अपने शरीर से शारीरिक सम्बन्धियों के सेवा-विकास हेतु किया गया कार्य ही स्वार्थ कहलाता है तथा परमप्रभु या परमात्मा के निर्देशन आज्ञा एवं आदेश में अनन्य प्रेमअनन्य सेवाअनन्य श्रद्धा-भक्ति से किया गया कार्य जिसमें किसी भी प्रकार की कामना न हो यानी निष्काम होवह परमार्थ के अन्तर्गत आता है । समाज में स्वार्थ निम्न स्तरीय तथा परमार्थ उच्च स्तरीय व्यवहार के रूप में जाना-देखा जाता है फिर समाज ऐसा बन गया है कि जानते-देखते हुये भी कि परमार्थ उच्च स्तरीय क्रिया-कलाप तथा व्यवहार है इतना ही नहीं उच्च स्तरीय स्थान प्राप्त करने के लिये सभी प्रयत्नशील भी रहते हैं जिसमें उन बन्धुओं की उच्चाभिलाषा दिखलायी देती है । फिर भी स्वार्थ की तुच्छ संकीर्णता ने आज मानव बन्धुओं को इतना दबोच लिया हैइतना जकड़ लिया हैइतना फंसा लिया हैऐसा अपने अधीन कर लिया है कि इस स्व-पाश से निकलना या निकालना लोगों के लिये कठिन ही नहीं अपितु एक असम्भव कार्य हो गया है । जबकि स्व-पाश में फंसकर अशान्त एवं बेचैन होकर सभी नाच रहे हैं फिर भी समझ में नहीं आ रहा है कि अपने स्व को परम’ में विलय करके स्वार्थ के स्थान पर इस शरीर को परमार्थ में लगा दिया जाय । यह जानते हुये भी कि आज कल घर बैठ कर कोई जीवन-यापन भी नहीं कर सकता है विकास करना या विकसित होना तो दूर रहा । समाज सेवासमाजोत्थान जो परमार्थ का ही एक अंग या अंशमात्र होता है कर करके लोग विधायकसांसदमन्त्री तक हो जा रहे हैं परन्तु स्वार्थ की संकीर्णतास्वार्थ का जकड़नस्व-पाश उनको पुनः नीचे गिराये बिना नहीं छोड़ती है जबकि समाज सेवा में लगा रहकर वही बन्धु उच्च पदस्थ स्थिति से भी उच्च पदस्थ स्थिति में बढ़ते रहते हैं या उठते रहते हैं परन्तु शरीर तथा शरीर के समीपी हीनजदीकी या समीपी बन-बन कर उच्च पदस्थ से निम्न पदस्थ तक गिराकर ही दम लेते हैं । अर्थात् हम देख रहे हैं कि स्वार्थों से भरा-पूरा भी स्वार्थों में लिप्त व्यक्ति को गिराये बिना नहीं छोड़ता  है । हमारे इस शारीरिक जीवन में ही अनेकानेक बातें आये दिन देखने को मिलती है जो स्वार्थ और परमार्थ’ का अन्तर सभी को मालूम हैसभी जान-देख व समझ रहे हैं फिर भी इसे जढ.ी हो गये हैं कि इन्हें अपना पतन ही नहीं दिखलायी दे रहा है कि ये अपना उत्थान सोचें । जबकि वास्तविकता यह है कि सभी परेशानसभी कठिनाइयों से गुजर रहे हैंसभी बेचैन हैआज पेट ही ऐसी खाई’ हो गयी है जो खाते हुये भी भर नहीं रही है आज शारीरिक- पारिवारिक व्यवस्था में ही लोग बहुत ही परेशान हैंचारो तरफ कमी ही कमी दिखलायी दे रही है । 

जीवन भी एक समस्या ही हो गया हैविज्ञान की ऊँचाई ने जीवन को खाई में डालकर विनाश की सामग्री तैयार ही कर लिया है । आज का आपसी सम्बन्ध भय और लोभवश हो रहे हैं जो भीतर ही भीतर डाह-द्वेषछल-कपट भय-लोभ आदि सुलगता रहता है क्योंकि सद्भावसद्विचारसद्व्यवहारसद्प्रेम तथा सद्कर्म आदि को तो लोगों ने अश्रद्धा एवं अविश्वसनीयता के कारण दूर फेंक दिये हैं । इन सभी के पीछे स्व-पाश यानी स्वार्थ की संकीर्णता दिखलायी दे रही है । स्व-काम का ही मूर्त रूप होता है । यानी जीव ही स्व है तथा इसके क्रिया-कलाप काम या इच्छा तथा विचार के माध्यम से होता है जब कि आत्मा का कार्य साधना तथा परमात्मा के कार्य तत्त्वज्ञान तथा परमार्थ कहलाता है और है भी ।

हर मानव का अपना एक स्तर या श्रेणी होता है जिससे वह कार्य करता है उसका अपना कार्य-क्षेत्र होता है जिसमें वह कार्य करता है । कोई व्यक्ति अपने स्तर से ऊँचा कार्य नहीं कर सकता और न क्षेत्र के बाहर कार्य कर सकता है । यदि अपने स्तर से ऊपर की बात भी की जाय तो वह अभिमान या अहंकार कहलाती है । यदि कार्य किया जाता है तो अनधिकार चेष्टा कहलाता है । ठीक इसी पर जीव का भी एक स्तर होता हैजीव का भी अपना कार्य-क्षेत्र होता है । काम का भी एक स्तर होता है एक कार्य-क्षेत्र होता है अपने स्तर से कार्य करता हैै तो सफल होता है और ऊपर की चेष्टा करता है तो दूसरे जो उस स्तर का है से सहयोग मांगता है उससे भीऊपर का होने पर अभीष्ट कार्य की पूर्ति हेतु अभीष्ट देवता की पूजा करता है वह भी अपने से नहीं होने पर पूजा-पाठयज्ञ-जाप आदि करवाता है जिससे अभीष्ट कामना की पूर्ति हो सके । कामना व्यक्तियों को आँख रहते अन्धा बना देती है जैसे -- छोटी-मोटी कामनाओं की भी पूर्ति यदि किसी स्थानमूर्तिपूजा-पाठ से हो जा रही है तो उसी को आदि-शक्ति और भगवान् तक की उपाधि लोग प्रदान कर देते हैं । जैसे भिखारी यदि दो पैसा मांगता है और आप उसे कहीं दो रुपया दे दिये तो सैकड़ों-सैकड़ों आर्शीवाद देते हुये आप को ही भगवान् तक की उपाधि दे देते हैं कि बाबू उरंआ हमार भगवान् बानीहमरा के भोजन के पैसा दे देले बानी’ आदि । इस प्रकार काम तथा कामना-पूर्ति मानव मात्र का यही मुख्य भाव हो गया है ।

बन्धुओं ! यह कामना सांसारिकता में तो थी ही भक्ति-भाव में भी घुसकर अपना स्थान कायम कर लिया है । चार प्रकार की भक्ति-- अर्थार्थीआर्तजिज्ञासु और ज्ञानी में से अथार्थी यानी धनाभिलाषा या धन की वृद्धि हेतु की जाने वाली भक्ति तथा  आर्त की भक्ति--- दुःखिया या कष्टी की कष्ट निवारण हेतु जिसमें पुत्र न होने का कष्ट भी शामिल हैकी जाने वाली भक्ति ही आर्त भक्ति कहलाती है । इस प्रकार धन और सन्तान के लिये भी यज्ञ-जापपूजा-पाठ तो आज इतना बढ़ गया है कि योगाभ्यासीसाधनाभ्यासी या आध्यात्मिक साधक मात्र ही नहीं आज के अध्यात्मवेत्ता सन्त-महात्मन् बन्धु भी अनुयायी और आश्रम की अट्टालिकायें के पीछे गुमानीअभिमानी तथा अहंकारी आदि बन-बन कर स्वयं को मिथ्याज्ञनाभिमानवश परमब्रह्मपरमेश्वर या खुदा परमात्मा के अवतार तक बन जा रहे हैं जो नहीं बनना चाहिये क्यांेकि सृष्टि में भगवान् या अवतार ही ऐसा पद है जो बनता नहीं है बल्कि होता है । परमात्मा या भगवान् उत्तरोत्तर विकास से बनता नहीं ।

सकाम कर्म सेवा नहीं कहलाता है । सेवा निष्काम कर्म को कहते हैं । सकाम कर्म नौकरी है । सकाम कर्म से परमात्मा की उपलब्धि असम्भव है । यदि वही सम्भव भी हो गया है तो परमात्मा या भगवान् खुद ऐसे सकामी व्यक्ति को अपने यहाँ रख नहीं सकता है । भगवान् खुद निष्काम होता है इसलिये अपनी अनन्य प्रेमीअनन्य सेवकअनन्य भक्त आदि को सदा निष्काम कर्म करने की आज्ञाआदेश आदि ही प्रवाहित करता है । सकाम कर्म पूर्णतः सांसारिकता का भाव-व्यवहार है । कामना की पूर्ति कत्र्ता या कामना-पूर्ति अधिकारी देवी-देवता है जिनकी पूजा-पाठयज्ञ-जाप कर-कराकर अभीष्ट कामना पूर्ति किया जाता है । मुक्ति और अमरता रूप परमात्मा की जानकारीदर्शन तथा अनन्य प्रेमअनन्य सेवाअनन्य भक्ति की चाह भी करना नहीं चाहिये बल्कि निष्काम भाव से करना चाहिये ।

सकाम कर्म का क्षेत्र सीमित होता है तथा उसकी प्राप्ति या उपलब्धि भी सीमित ही है क्योंकि अभीष्ट कामना पूर्ति के साथ ही कर्म तथा पूजा भी समाप्त हो जाता है । भगवान् के समक्ष किसी भी प्रकार की कामना नहीं रखना चाहिये क्योंकि कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार की चाह अपनी क्षमता के अनुसार ही कर सकता है जबकि परमात्मा असीम एवं असीम क्षमता वाला होता है । परमात्मा से यदि कोई कामना ही रखनी है कामना के बगैर पेट फूल जाता हो तो मात्र यही कामना और जिज्ञासा श्रद्धा पूर्वक रखना चाहिये कि ‘‘हे परमप्रभु! आप की इस तुच्छ पर सदा ही ऐसी कृपा बनी रहे कि आप के प्रति अनन्य प्रेमअनन्य सेवा एवं अनन्य भक्ति-भाव बनी रहेकायम रहेआप के प्रति कभी भी किसी भी प्रकार की शंका की गुंजाइश भी न होने पाये और सदा-सर्वदा हम आप के शरणागत रहें ।’’

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