विद्यातत्त्वम् या परमविद्या

विद्यातत्त्वम् या परमविद्या
सद्भावी विद्यातत्त्वम् भिलाषी बन्धुओं ! जैसा कि आप बन्धु को मालूम ही होगा कि विद्यातत्त्वम् का एक अध्याय ही है । परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् की परिपूर्णतम् एवं यथार्थ जानकारी दरश-परश, बात-चीत स्पष्टतः परिचय के साथ ही विद्यातत्त्वम् या परमविद्या या परमज्ञान कहलाता है । चूँकि ब्रह्म का उत्पत्ति और लय रूप परमब्रह्म, ईश्वरों का महान् ईश्वर अर्थात् महेश्वर या  परमेश्वर, आत्माओं में परम रूप परमात्मा, सोल या स्पिरिट का उत्पत्ति और लय रूप गाॅड, नूरे इलाही, आलिमे नूर, आसमानी रौशनी का उद्गम और लय रूप अलम् या भग (सृष्टि) वान् (चालक) सृष्टि-चालक रूप सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामथ्र्य होता है इसीलिये उसकी मूल या यथार्थ जानकारी परमविद्या नाम या उपाधि से जानी जायेगी । यह परमब्रह्म, परमईश्वर, परम आत्मा, परम ह ँ्स, परम धर्म, परम शान्ति, परम आनन्द, परम पद, परम भाव, परम अक्षर, परम प्रेम, परम-कर्म, परम भक्ति, तथा परमसे सम्बन्धित परिपूर्ण एवं स्पष्ट जानकारी, पूर्ण-परिचय के साथ ही कराने वाली विद्या ही परम विद्या है । विद्या और अविद्या दोनों ही जड़ एवं चेतन की जानकारी मात्र है चेतन तथा चेतन से सम्बन्धित जानकारी विद्या तथा जड़-पदार्थ से सम्बन्धित जानकारी अविद्या कहलाती है । यह विद्या और अविद्या दोनों ही यहाँ पर सदा निवास करती है, उत्पन्न होती है और जहाँ पर लय होती है वही एकमात्र दोनों से उत्तम परमविद्या है । उसकी वृहद् जानकारी विद्यातत्त्वम् वाले शीर्षक में देखें ।
आइये बन्धुओं अब परा-विद्या या श्रेय विद्या या अध्यात्म विद्या या योग-विद्या की जानकारी करें ।

परा-विद्या या श्रेय विद्या या अध्यात्म विद्या या योग-विद्या या विद्या:-- सद्भावी बन्धुओं ! इस पूरे विषय को पिछले प्रकरण पुनः गहनता एवं मनन-चिन्तन तथा योग-साधना करते हुये अनुभूति कर-करके इस अध्यात्म विद्या को जानने, समझने एवं अनुभूति करने का यत्न करें । ऐसा न सोचें कि पढ़ चुका हूँ क्योंकि तु़च्छ से तुच्छ व्यवहार खाना और पखाना रोज क्या सुबह-शाम दोनों ही बार-बार करते हैं तो घबराहट ही नहीं होती है और योग-साधना या अध्यात्म या आत्म-विद्या की यथार्थ जानकारी हासिल करने में घबराहट क्यों ? घबराहट नहीं, बिल्कुल नहीं होनी चाहिये । यहाँ पर समय की बचत नहीं की जानी चाहिये । ऐसे जानकारी हासिल करने में जीवन के अधिक से अधिक समय को लगाना चाहिये । क्योंकि वास्तव में शान्ति और आनन्द का मार्ग योग-साधना या अध्यात्म ही है । परमशान्ति और परमानन्द का तथा मुक्ति और अमरता का मार्ग और प्राप्ति तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या परमज्ञान या विद्यातत्त्वम् होता है परन्तु शान्ति और आनन्द रूप कलयाण हेतु तो यह परा-विद्या या श्रेय विद्या या योग-विद्या या आत्म-विद्या या विद्या ही पर्याप्त है परन्तु साधनात्मक एवं अनुभूति परक होनी चाहिये । अध्ययन-अध्यापन मात्र के भरोसे यानी शास्त्री जानकार चाहे जितना बड़ा भी हो कभी भी अध्यात्मवेत्ता या आत्मवेत्ता नहीं हो सकता है जैसे नारद।

अविद्या
सद्भावी अविद्या वाले विद्वत् अहंकारी बन्धुओं ! अविद्या का अर्थ अशिक्षा तथा विद्या का अर्थ शिक्षा कदापि नहीं हो सकता है । शिक्षा अविद्या के अन्तर्गत भी प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय रूपी तीन स्तरों यानी श्रेणियों में तीसरे स्तर या श्रेणी के अन्तर्गत आती है । प्रथम-श्रेणी में मन्त्र-विभाग, द्वितीय श्रेणी में चारो वेद तथा तृतीय श्रेणी में- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द (गायत्री आदि) तथा ज्योतिष आता है । अब यहाँ पर अविद्या के अन्तर्गत आने वाले तीनों श्रेणी वाले विषय को पृथक्-पृथक् रूप में क्रमशः देखने के पूर्व सर्वप्रथम अविद्या क्या है ? इसे देखा जाय ।
सृष्टि की उत्पत्ति मूलतः तो परमतत्त्वम् रूपी आत्मतत्त्वम् रूप गाॅड या अलम् से हुई है परन्तु सृष्टिकी सीधे उत्पत्ति कारण रूप आत्म-ज्योति रूपा आत्मा या ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म या दिव्य-ज्योति रूप ईश्वर या डिवाइन लाइट रूप सोल या स्पिरिट या नूरे इलाही रूप वहीसे हुई है जो चेतन-आत्मा है । चूँकि इसकी उत्पत्ति आत्मतत्त्वम् से हुई है इसलिये इसे तत्त्व जाति का ही कहा गया जिससे चेतन-तत्त्व नाम पड़ा । चेतन-तत्त्व स्वतः आत्मशब्द और ज्योति रूप दोनों से युक्त था जो आगे चलकर ज्योति आत्मसे पृथक् हो गयी, जो चेतना-हीन, परन्तु गतियुक्त रही । परन्तु आत्मशब्द अपने पैतृकता रूप चेतन के रूप में कायम रहा । आगे चलकर परिवर्तन-चक्र से ज्योति ही चेतना-हीन कहलायी । यही कारण है कि प्रत्येक चेतना-हीन वस्तु या शरीर ही जड़ कहलाती है । चूँकि ज्योति भी आत्मके साथ ही आत्मतत्त्वम् रूपी परमतत्त्वम् से ही उत्पन्न हुई थी इसलिये यह भी उसी जाति की-- जड़-तत्त्वकहलायी । इस प्रकार एक तरफ चेतन-तत्त्व अपनी क्रियाशीलता प्रारम्भ करती तथा दूसरे तरफ जड़-तत्त्व अपनी गति-विधि प्रारम्भ कर दी । या दोनों -- चेतन-तत्त्व और जड़-तत्त्व  ही अपनी-अपनी रूप में क्रियाशीलता और गतिशीलता प्रारम्भ कर दी थी जो सृष्टि कहलायी । उसी सृष्टि का ही एक छोटा सा खण्ड रूप सौर-मण्डल है जिसका पृथ्वी एक अंश-विशेष है । इस प्रकार सृष्टि-चक्र में चेतन-तत्त्व तथा चेतन-तत्त्व से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी विद्या तथा जड़-तत्त्व तथा जड़-तत्त्व से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी मात्र ही अविद्या कहलायी ।
चूँकि जड़-चेतन, दोनों दो रूपों में गतिशील एवं क्रियाशील रहते हुये जड़-ज्योति से परिवर्तित होता हुआ पदार्थ रूप तत्पश्चात् वस्तु रूपों में परिवर्तन एवं गतिशील रूप में गैस, द्रव एवं ठोस रूप में परिवर्तित हो गया । दूसरे तरफ चेतन-तत्त्व रूप आत्मा चेतनता रूप क्रियाशील होता हुआ प्राण-वायु के माध्यम से स्वर-संचार रूप या क्रिया-प्रक्रिया से शरीरों में प्रवेश करके अहंरूप जीव--- जो जड़ और चेतन के मध्य सम्बन्ध स्थापित करते-कराते हुये शरीर को कर्म में लगाता तथा भोग को शरीर के माध्यम से भोगता हुआ स्थित हो जाता है । जड़ एवं चेतन के मध्य ये अहंशब्द रूप जीव भी इन दोनों से भिन्न अपना एक अलग अहंकार रूप में अस्तित्त्व कायम कर लेता है जबकि यथार्थतः जड़ रूप शरीर तथा चेतन रूप आत्मा से पृथक् इसका अपना कोई मूलतः अस्तित्त्व ही नहीं होता । यह अहंशब्द रूप जीव या तो शरीर भाव में या आत्मा-भाव में ही रह सकता है । जब शरीर और आत्मा से भिन्न अपना अस्तित्त्व कायम करने लगता है तब ही यह अहंकारी, स्वाभिमानी, स्वार्थी आदि उपाधियों से विभूषित होने लगता है । इस प्रकार अहं शब्द रूप जीव तथा जीव से सम्बन्धित क्रिया-कलाप की समस्त जानकारियाँ विचारनाम से जानी जाने लगी जो शान्ति और आनन्द रूप कल्याण रूप में नीतिनाम से जानी गयी । अच्छे विचारों का संग्रह-रूप सुनीति तथा बुरे-विचारों का संग्रह कुनीति आदि नामों से जानी जाती है । इस प्रकार विचार भी जीव स्तर पर एक स्थान कायम कर लिया । चूँकि जड़-जगत् का प्रतिनिधि रूप में शरीर तथा परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप परमात्मा का प्रतिनिधि रूप में आत्मा तथा शरीर और आत्मा में आपस में ताल-मेल कराकर व्यवहारिक रूप देने वाला कार्य या मध्यस्थता रूप में अहंरूप जीव हुआ ।
चू.ँकि जड़-तत्त्व की गति-विधि मुख्यतः गैस, द्रव एवं ठोस रूप में होता है जो पाँच भागों में विभाजित होकर सृष्टि में गतिशील है । जैसे -- आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल रूप पाँच पदार्थ-तत्त्व हैं जिसमें सारी सृष्टि ही गतिशील है । इन्हीं पाँचों-पदार्थ तत्त्वों तथा उससे सम्बन्धित विषय-वस्तुओं की जानकारी हेतु पाँच ज्ञानेन्द्रियों की रचना भी शरीर में कर्ण, त्वचा, चक्षु जिह्वा एवं घ्राण रूप में क्रिया एवं भोग हेतु पाँच कर्मेंन्द्रियों --- वाक्, हस्त, पाद, लिंग या उपस्थेन्द्रिय तथा गुदा की रचना की गयी अथवा हुई । जो ज्ञान के अनुसार ही सहायक रूप में कार्य करने तथा भोग-भोगने का कार्य करती हैं । इसके आगे और वृहद् जानकारी हासिल करने हेतु कैसे हुई इस स्थुल जगत की रचना (पुष्पिका-18) नामक सद्ग्रन्थ अध्ययन किया जाए ।

जड़-तत्त्व या पदार्थ-तत्त्व रूप आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा थल रूप पाँचों पदार्थ-तत्त्वों तथा इससे सम्बन्धित सम्पूर्ण विषय-वस्तुओं जानकारी ही अविद्या है । समाज में जिस प्रकार अशिक्षित और शिक्षित हैं ठीक उसी प्रकार भौतिक-विद्या और अध्यात्म-विद्या है । पुनः ठीक उसी प्रकार आपस में अध्यात्म विद्या और विद्यातत्त्वम् का है । दूसरे शब्दों में विद्यातत्त्वम् वाले के समक्ष अध्यात्म विद्या वाला भी नाजानकार एवं नासमझदार रूप में यथार्थतः होता है तथा अध्यात्म विद्या वाले के समक्ष भौतिक विद्या या अविद्या वाले जढ़ी एवं मूढ़ जैसे होते हैं और अविद्या या भौतिक विद्या में अनपढ़ या अशिक्षित ही नाजानकार एवं नासमझदार रूप मूढ़ रूप में जाने देखे जाते   हैं । यह होता है यथार्थतः विद्यातत्त्वम् के अन्तर्गत स्तर या श्रेणी तथा इसी के अनुसार सम्बन्ध या युक्त रहने वाले महत्व भी समाज में कायम होता और कायम रहता है । अब आइये अविद्या में मन्त्रों को देखा जाय कि मन्त्र क्या है ? कहाँ से आया तथा इसकी यथार्थता क्या है ?

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परमतत्त्वम् धाम आश्रम
B-6, लिबर्टी कालोनी, सर्वोदय नगर, लखनऊ
फोन न॰ - 9415584228, 9634481845
Email- bhagwadavatari@gmail.com

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