हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई-

हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई-
सब आपस में भाई-भाईकी यथार्थता
सद्भावी मानव बन्धुओं ! आइये हम लोग कुफ्र और फित्न को समाप्त करके यथार्थता को जानने-जनाने, समझने-समझाने का प्रयत्न किया जाय । सर्वप्रथम तो हम सभी मानव एक ही परमात्मा या खुदा या गाॅड से उत्पन्न हुये जो आत्म-ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म ज्योति रूप ब्रह्म या दिव्य-ज्योति रूप ईश्वर या डिवाइन लाईट रूप सोल या नूरे-इलाही रूप फरिश्ता या चाँदना रूप अविनाशी आतम उपाधि वाले थे । तत्पश्चात् सांसारिक कर्म एवं भोग तथा भजन एवं प्रार्थना हेतु शरीरों का सम्पर्क पाकर सूक्ष्म-शरीर या जीव या सेल्फ या रुह या अहम् या स्व आदि नाम-रूप उपाधि से युक्त हुये तत्पश्चात् परमात्मा, खुदा, गाॅड या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य रूप परमब्रह्म या अल्लातआला या परमेश्वर के निर्देशन में ही मनु-शतरूपा अथवा ऐडम इव अथवा आदम हउवा के माध्यम से हम सभी बन्धु मानव या मैन या आदमी हुये । यहाँ तक तो हम सभी एक स्वर से एक ही तथा एक समान स्पष्टतः स्वीकार करते हैं परन्तु सत्पुरुषों एवं महानुभावों आदि के परमात्मा या परमश्ेवर या अल्लातआला या सत्पुरुष परक उपदेशों की एकत्वपरक अद्वैत्तत्त्वबोध या तौहीद या वनली वन गाॅड या सार्वभौम परमसत्य का यथार्थता का न जानने एवं समझने तथा आभासित होने पर भी यथार्थता को छिपा-छिपा कर मनमाना अर्थ कर करके लोगों को यथार्थता से हटा कर भ्रामक उपदेशों में फंसाकर स्वार्थ पूर्ति करते हैं ।
हम सभी मानव बन्धु मनुसे उत्पन्न होने के कारण मानव या मैन या मनुष्य कहलाते हैं अथवा वही मनु आदम नाम से  भी जाने जाते हैं जिससे उत्पन्न होने के कारण हम सभी आदमी भी कहलाते हैं जो किसी भी भेद-भाव से रहित एकत्व का ही बोध कराता है । परन्तु आगे चलकर समय-चक्र एवं सृष्टि या खिलकत-चक्र के कारण मानव समाज दूषित होग गया । जिससे आपस में प्रेम-व्यवहार या सद्व्यवहार रूपी मेल-मिलाप के स्थान पर डाह-द्वेष, बैर-वैमनस्य, घृणा, चोरी, लूट, डकैती, आगजनी, राहजनी, अपहरण, व्यभिचार एवं अत्याचार तथा समस्त अपराधों का उद्गम श्रोत एवं संरक्षण-विकास रूप भ्रष्टाचार आदि जोर-जुल्म जैसा कि आज कल हो गया है, छा गया और चारों तरफ ही हा-हा कार मचा उसी बीच सत्पुरुष का अवतार एवं महानुभावों आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं, प्राफेट्स, पैगम्बरों या देव-दूतों का भू-मण्डल पर दूषित समाज के बीच आगमन हुआ जिनके अथक श्रम-परिश्रम से कुछ ऐसे व्यक्ति दूषित समाज से बाहर आये यानी पृथक् होकर दोष-रहितजीवन-जीने तथा ऐसे अपने दोष-रहितसमाज के विकास में लग गये जो दोष-रहितया दूषित-भावनाओं से हीनजीवन जीने का संकल्प लेने तथा व्यावहारिक में लागू करने के नाते (कारण) हिन्दूयानी दूषित भावनाओं से हीन है जोकहलाने लगे । जो आज भी हिन्दूशब्द और समाज कायम है जो समय-चक्र के अनुसार विकास करता हुआ एक बड़े पैमाने पर स्पष्टतः दिखलायी दे रहा है । हर वह व्यक्ति हिन्दूहै जो दूषित-भाव, दूषित-कर्म, दूषित-व्यवहार, दूषित-सम्बन्धों से रहित या पृथक् रहते हुये जीवन-जीने का संकल्प लेता तथा व्यवहार में पूर्णतः लागू करता है । मगर हिन्दूका हिन्दूत्व की रक्षा हो या कायम रहे, उसके लिये तीन बातों का क्रमशः होना अनिवार्य होता है जो तत्त्वज्ञान या विद्या-तत्त्व या सत्यज्ञानतथा योग-साधना या परा-विद्या या श्रेय-विद्या या अध्यात्म अन्यथा स्वर-संचार पद्धति की भी कम से कम अवश्य ही जानकारी- सैद्धान्तिक- प्रायौगिक एवं व्यावहारिक रूपों में होना तथा उसकी को आधार बनासकर अपने जीवन को व्यवहृत करना पड़ेगा, अन्यथा हिन्दूत्व की रक्षा-व्यवस्था कायम रहे यह तो स्वप्नवत् या कल्पना मात्र ही रह जायेगा । तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या सत्य-धर्म या विद्यातत्त्वम् का यथार्थ जानकार तथा अपने जीवन-व्यवहार को पूर्णतः समर्पण-भाव से उन्हीं के शरणाागत होकर दोष-रहितजीवन-यापन करने वाला सच्चा हिन्दू या उत्तम-हिन्दूहोता है तथा परा-विद्या या श्रेय-विद्या या योग-साधना या अध्यात्म-विद्या की सैद्धान्तिक एवं प्रायौगिक जानकारी तथा अष्टांग-योग विधान के अनुसार ही दोष-रहितजीवन-यापन या व्यवहार करना मध्यम-हिन्दूतथा स्वर-संचार-पद्धति की ठीक सैद्धान्तिक एवं प्रायौगिक जानकारी हासिल करके उसी पर अपने जीवन-व्यवहार को पूर्णतः आधारित रखते हुये विद्यातत्त्वम् या सत्यज्ञान या सत्य-धर्म तथा योग-साधना या अध्यात्म से रहित मात्र स्वर-संचार पद्धति पर आधारित दोष-रहितजीवन-यापन करना अधम-हिन्दूहोते हैं परन्तु तीनों से रहित व्यक्ति हिन्दू ही नहीं है ।
सद्भावी मानव बन्धुओं ! अब तक तो हम लोग हिन्दू की जानकारी हासिल किया जाय हिन्दूयानी दोष-रहितअथवा दूषित भावनाओं से हीनव्यक्तियों का समाज भी जब हिन्दू शब्द के बावजूद भी इन समाज का कर्म-व्यवहार तथा धर्म भी पूर्ववत् (हिन्दू के पूर्व की अवस्था) में पहुँच जाता है ।  पुनः धर्म-रहित तथा दूषित-कर्म, दूषित-भाव, दूषित-व्यवहारों में लिप्त हो गया तो समाज सुधारक महापुरुष प्राफेट्स, देव-दूत आदि आते गये हिन्दूजैसे विधानों से ही एक-एक सत्य-धर्म एवं दोष-रहित कर्मों हेतु उत्प्रेरित करते हुये जैन-समाज, बुद्ध से बौद्ध समाज, मुसाअली से यहूदी (यहोवा को मानने वाले) समाज आदि हुये । मुसा अली यहोवाके पूजक एवं सेवक तथा आज्ञा-निर्देशनों में चलने वाले थे । मुसा अली के अनुयायी जो मात्र यहोवापरमेश्वर में विश्वास रखने तथा मात्र उन्हीं के आज्ञानुसार चलने वाले समाज ही यहूदी नाम से कहाते हैं । मुसा अली के अनुयायियों में ईशामसीह भी एक प्रभावी एवं तेजस्वी शिष्ट थे । मुसा अली यहोवा (परमेश्वर) के प्रिय आज्ञाकारी सेवक या अनुयायी थे । मुसा अली के पैगम्बरी के पश्चात् ईशामसीह को पैगम्बरी मिली । ईशामसीह का बचपन का नाम इम्मानुएलअर्थात् परमेश्वर हमारे साथथा । जो बाद में यीश ु नाम से जाना      गया । यीशु भी सत्पुरुष का पुत्र यानी परमेश्वर के पुत्र के नाम से जाना जाने लगा । यीशु सत्य-धर्म के नाम पर परमेश्वर का ही प्रचार करते थे परन्तु स्वयं वे आत्मा वाले ही थे । जैसा कि उनके बपतिस्मा रूपी दीक्षा से जाहिर होता है । शिक्षा या प्रचार तो परमश्ेवर का करते थे परन्तु दीक्षा आत्मा या ईश्वर का देते थे । यीशु का परमेश्वर -- डिवाईन लाईट या दिव्य-ज्योति रूप सोल या आत्मा या ईश्वर ही है; यथार्थतः परमेश्वर नहीं ।यीशु परमेश्वर के ही अंशावतार थे जिनको ईश्वरावतार कहा जा सकता है परन्तु परमेश्वर के पूर्णावतार नहीं थे कि अवतारी या परमेश्वर नाम से जाना जाय । यीशु परमेश्वर के प्रचारक परन्तु ईश्वरीय जानकारी यानी अध्यात्मोपदेशक थे ।
यीशु के पूर्व मानव समाज की दशा भी ठीक वैसी ही हो गयी थी जैसी कि हिन्दूके पूर्व थी । इसी बीच परमेश्वर ने यीशु के माध्यम से समाज सुधान कराने हेतु यीशु पर ईश्वरीय तोहफा या नूरानी कूवत उतारा जिसके सहारे यीशु समाज में बड़े पैमाने पर कल्याण और सुधार करने लगे । नास्तिकता के बीच आस्तिकता को उत्पन्न करके अधर्म के बीच धर्म की स्थापना शिक्षा एवं प्रचार के माध्यम से करने लगे । ईश का अर्थ परमेश्वर से होता है परन्तु अध्यात्मवेत्ता द्वारा परमेश्वर के स्थान पर ईश रूप ईश्वर की दीक्षा ही देते हैं परन्तु शिक्षा या प्रचार परमेश्वर के पूर्णावतार रूप अवतारी के समाज ही देते हैं । यीशु भी उन्हीं अध्यात्मवेत्ताओं में से एक हैं । यीशु दिव्य-ज्योति के माध्यम से शान्ति और आनन्द तथा कल्याण के रूप में काफी तेजी से प्रचार-प्रसार किया । यीशु के अनुयायी शिष्यों ने यीशु के शरीर-त्याग के पश्चात् गुरु-भक्ति भाव में इतने लीन हो गये कि लक्ष्य रूप परमेश्वर तथा ईश्वर को ही भूल-भूलाकर गुरु-शरीर को ही अभीष्ट लक्ष्य मानकर पूजने लगते हैं यानी प्रचलित परमात्मा के समान महावीर, बुद्ध आदि के समान ही ईसाई भी हो गये । यीशु ने यीशु का नहीं परमेश्वर का प्रचार किये पर भक्त यीशु का कर रहे हैं ।
सद्भावी मानव बन्धुओं ! सत्पुरुषों या पूर्णावतारियों जैसे श्रीविष्णुजी महाराज, श्री रामचन्द्र जी महाराज एवं श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज आदि ने एक स्वर से ही अद्वैत्तत्त्वबोध रूप परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या गाॅड या अल्लातआला को ही जनाया, दिखाया एवं बात-चीत करते-कराते हुये पहचान कराया तथा तत्त्वनिष्ठा एवं भगवद् सेवा-भक्ति को ही संस्थापित किया, एकत्वबोध कराते हुये परमेश्वर के प्रति अनन्य सेवा-भक्ति को ही सत्य-धर्म रूप में स्थापित किया तथा आदिकालीन से लगायत वर्तमान कालीन समस्त योगी-यति, ऋषि-महर्षि, आलिम-औलिया, प्राफेट्स, पीर, पैगम्बर तथा समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं ने ही एक स्वर से ही शिक्षा या प्रचार-प्रसार तो परमात्मा-खुदा-गाॅड-यहोवा, परमसत्य, परमभाव रूप किसी न किसी नाम-रूप में सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य रूप भगवान् या अल्लातआला का ही करते थे जिसके मूल में एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ ‘गाॅड इज वन् अदरवाइज नन्’ , (GOD is One Otherwise None) या वन्ली वन् गाॅड (Only One GOD) या ला। अिलाह अिल्ला हुवया तौहीद या एकेश्वरवाद ही रहा है या है भी । इतना ही नहीं सभी ने मूर्ति एवं शास्त्रों का बूत एवं किताबों में चिपकने को या बहुदेवाद या शीर्क का विरोध किया था तथा वर्तमान सत्पुरुषों या अवतारियों तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं, प्राफेट, पैगम्बरों तथा गुरुओं आदि से ही सम्पर्क करके शरणागत भाव सो उत्कट जिज्ञासु एवं श्रद्धालु के रूप में समर्पण भाव में लाभ लेने को कहा है । फिर पिछले रूपों जैसे हो जाते हैं । काल-चक्र, सृष्टि-चक्र एवं  प्रकृति के अनुसार पुनः हिन्दू’, ‘जैन’, ‘बौद्ध’, ‘यहूदीजैसे ही ईसाईभी उत्पन्न एवं पृथक् तो हुये थे दूषित समाज से ही, परन्तु सत्पुरुषों तथा महापुरुषों के परमधाम तथा स्वधाम सिधार जाने के पश्चात् कुछ शताब्दियों पश्चात् सत्पुरुष रूप अवतारी तो युग-युग में परन्तु आध्यात्मिक महापुरुष समय-समय या एक साथ ही अनेकों की संख्या में एक लक्ष्य को लेकर उसी परमेश्वर-खुदा-गाॅड-यहोवा द्वारा शान्ति और आनन्द की स्थापना हेतु समाज कल्याण एवं समाज सुधार हेतु प्रेषित किये जाते रहे हैं और प्रेषित किये जाते रहेंगे भी । इसी प्रेषण में दूषित समाज के सुधार एवं कल्याण हेतु पैगम्बर के रूप में मुहम्मद साहब भी नूरानी कूवत  वहीके साथ भेजे गये थे । जो ला। अिलाह अिल्ला हुवके उपदेशक एवं प्रचार-प्रसार किये जो तौहीद या एकेश्वरवाद को ही स्थापित एवं व्यवहृत कराया; जबकि इसके प्रचार में शीर्क, मुशरिकों, बूत परस्तों, कुरैशों आदि काफिरों से कम संघर्ष नहीं करना पड़ा । अल्लातआला के हुक्म से जिहाद् (धर्म-युद्ध) भी छेड़ना पड़ा । इसके लिये उन्हें कम कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा । मुहम्मद साहब के पहले समाज में एक भी मुसलमान था जैसे कि महावीर के पूर्व एक भी जैनी; बुद्ध के पूर्व एक भी बौद्ध; मुसाअली के पहले एक भी यहूदी, यीशु मसीह के पहले एक ईसाई नहीं थे वैसे ही मुहम्मद साहब के पूर्व एक भी मुसलमान नहीं थे । वास्तव में मुहम्मद साहब के साथ जिन-जिन बन्धुओं ने अल्लातआला या दीन की राह पर मुसल्लमा और मुकम्मल ईमान के साथ ईस्लाम यानी खुदा के प्रति आत्म-समर्पण किया मात्र वही मुसलमान हैं ।
सद्भावी मानव बन्धुओं ! वैसा ही आप लोग पिछले प्रकरणों में देखते आये हैं । ठीक वैसा ही विषय-वस्तु यहाँ भी है थोड़ा सा भी ध्यान देने पर समझ में आ जाना चाहिये । आइये अब थोड़े देर के लिये सिक्ख समाज के तरफ चला जाय । हिन्दू, जैन, बौद्ध, यहूदी, ईसाई, मुस्लिम आदि समाज के समान ही पुनः समाज के उसी प्रकार पूर्व के दूषित-समाज के जोर-जुल्म एवं अत्याचार-भ्रष्टाचार के मध्य कल्याण एवं सुधार हेतु गुरुनानक देव जी भी आये । ये भी अंशावतारी थे । आत्मा के ही प्रचारक थे । नानकदेव जी ने भी अध्यात्म रूप चाँदना रूप एकेश्वरवाद या तौहीद का ही प्रचार-प्रसार किया । ये भी शिक्षा-प्रचार-प्रसार तो परमात्मा या परमश्ेवर या खुदा या गाॅड या यहोवा या सत्सीरी अकाल का ही करते थे परन्तु दीक्षा नानकदेव जी भी स्वास-निःस्वास से सोऽहँ-ह ँ्सो एवं ज्योति रूप आत्म-शक्ति या ब्रह्म-शक्ति की ही देते थे । परन्तु ‘1 ’ , ‘एक कारका ही प्रचार-प्रसार किया था जो तौहीद या एकेश्वरवाद का ही प्रतिष्ठा प्रतिस्थापन हुआ । नानक देव जी के माध्यम से ‘1 ’ ‘एक कारके प्रति पूर्ण समर्पण भाव से सोऽहँ-ह ँ्सो एवं चाँदना का सीख यानी उपदेश लेकर सत् सीरी अकाल रूप सत्य-धर्म को स्वीकार करने वाले ही सिक्ख कहलाये । नानकदेव जी के पूर्व एक भी सिक्ख नहीं था परन्तु गुरुनानक देव जी का साथ जितने बन्धुओं ने दिया था मात्र वही तत्काल में सिक्ख कहलाये । नानकदेव जी ने भी स्पष्टतः मूर्ति एवं सद्ग्रन्थों का विरोध, मनाही तथा तुरन्त सफलता हेतु सत्पुरुष एवं आध्यात्मिक महापुरुषों के शरणागत होकर आध्यात्मिक प्रक्रिया को ही महत्व दिया एवं उपदेशित भी किया था । परन्तु उनके अनुयायी भी 1 कार एवं सत्सीरी अकाल के सिवाय अपने गुरु-भक्ति के कारण नानकदेव जी का ही मूर्ति प्रतिस्थापन कर-करा करके गुरु ग्रन्थ साहब को ही गुरुनानक देव जी की भाँति पूजने और मानने लगे हैं जो गुरु वाणी के विरूद्ध ही है ।
स्पष्टीकरणः- सद्भावी मानव बन्धुओं ! आइये अब हिन्दू, जैन, बौद्ध, यहूदी, ईसाई, मुस्लिम, सिक्ख, कबीर-पंथी, दरिया-दासी एवं योग-साधना मार्गी आदि बन्धुओं के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण किया जाय कि ये कौन हैं, कैसे बने और क्या हो गये ? पुनः क्या हैं ?
अफसोस ही नहीं, महानतम् अफसोस की बात है कि जिन-जिन बातों विषयों, भावनाओं, कुरीतियों, कुकर्मों, कुव्यवहारों, कुविचारों, कुप्रभावों एवं कुदृष्टियों के कारण हिन्दू’, ‘जैन’, ‘बौद्ध’, ‘यहूदी’, ‘ईसाई’, ‘मुस्लिम’, ‘सिक्ख’, ‘कबीर-पंथी’, ‘दरिया-दासीएवं योग-साधना मार्गी अध्यात्मवेत्ता महानुभावों बन्धुओं को देखकर अफसोस ही नहीं, अपितु महानतम् अफसोस हो रहा है कि जिसके कारण ये सभी बन्धुगण उत्पन्न हुये उन तत्कालीन दूषित समाज सम्प्रदायों आदि से पृथक् होकर परमात्मा या परमेश्वर या नमो अरिहन्ताणंया सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-दृष्टि, सम्यक बोध या यहोवा या गाॅड या खुदा या अल्लातआला या  कार या सत्सीरी अकाल या सत् पुरुष या सत्-नाम आदि उपाधियों के लक्ष्य रूप सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्यवान् भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण एवं शरणागतया ईस्लाम-कबूलवाले भाव में रहते हुये दूषित समाज से पृथक् दूषित-भावनाओं से हीनया दोष-रहित समाज कायम करके परमात्मा, परमेश्वर, यहोवा, गाॅड, खुदा आदि के आज्ञाओं, निर्देशनों एवं रक्षा-व्यवस्था में रहते हुये पृथक् रूप में दोष-रहितजीवन-यापन मुसल्लम और मुकम्मल ईमान के साथ रहते हुये गुजारेंगे तथा एकमात्र एको ब्रह्म द्वितीयो नास्तिया गाॅड इन वन्या ला। अिलाह अिल्ला हुवया 1 कार सत्सीरी अकाल या सत् पुरुष मात्र को ही अपनी अभीष्ट देव मान पूजनीय मानेंगे, बहुदेववाद किसी भी शर्त पर स्वीकार नहीं करेंगे, बूत-परस्त या शीर्क या मुशरिक या मूर्ति-पूजक या परमात्मा, खुदा, यहोवा, गाॅड आदि के पूजा-नमाज में किसी भी अन्य को हिस्सेदारी या मिलावट या सहभागीदारी या शरीक नहीं करेंगे, एकमात्र तौहीद् या एकेश्वरवाद के सिद्धान्त पर अडिग रहते हुये एकमात्र उन्हीं परमप्रभु के आज्ञाओं, निर्देशनों एवं रक्षा-व्यवस्था रूप संरक्षण में ही दोष-रहितमुसल्लम और मुकम्मल ईमान के साथ दीन-भाव या सत्य-धर्म के प्रति समर्पण-शरणागत रहेंगे । यही सर्वमान्य मत है ।
सद्भावी मानव बन्धुओं ! से बार-बार भी कहते हुये लेखनी नहीं मानती है कि अफसोस ही नहीं, अपितु महानतम् अफसोस की बात है कि दूषित-भावनाओं, दूषित-विचारों, दूषित-कर्मों से भरपूर दूषित परम्पराओं एवं दूषित रीति-रिवाजों का आधार-बिन्दु या केन्द्र-बिन्दु रूपी मूर्ति एवं शास्त्र के बूत एवं किताब तथा ग्रन्थों आदि को ही परमेश्वर, यहोवा, गाॅड, अल्लातआला के साथ ही सह-भागीदार या शरीक करने वाले समाज, सम्प्रदायों, वर्गों से कितना संघर्ष करके, कितनी कठिनाइयों को झेल करके, कितने कष्टों को सहन करते हुये तथा दर-दर की ठोकरें खाते हुये सत्पुरुषों या अवतारियों तथा आध्यात्मिकों, महापुरुषों, प्राफेट्स, पैगम्बरों आदि ने मूर्तिवाद से पृथक्, बहुदेववाद से पृथक्, दूषित-परम्पराओं एवं दूषित रीति-रिवाजों से पृथक् एको ब्रह्म द्वितीयो नास्तिअद्वैत्तत्त्वबोध, एकत्वबोध या गाॅड इन वन अदरवाइज नन्या वन्ली वन् गाॅडया ला। अिलाह अिल्ला हुवया ‘1 कारया सत्पुरुषरूप तौहीद या एकेश्वरवाद को कायम किया था ।
यदि थोड़ा भी उनके कठिनाइयों, संघर्षों एवं दर-दर की ठोकरों पर ध्यान दिया जाय कि आखिरकार वे ऐसा क्यों किये, इतनी कठिनाइयों को झेलते हुये सब कुछ बर्दास्त किये परन्तु तत्कालीन दूषित-परम्पराओं एवं दूषित रीति-रिवाजों से संघर्ष किये बगैर आजीवन चैन नहीं लिये  आखिरकार इसके पीछे क्या रहस्य था, क्या भावनायें थीं । इस पर थोड़ा-सा भी मनन-चिन्तन किया जाय तो यथार्थता का पता चल जाय । परन्तु आज भी वही हाल, वही व्यवस्था, वही भाव, वही विचार एवं वही कर्म जो सत्पुरुषों या अवतारियों तथा प्राफेट्स, पैगम्बरों एवं आध्यात्मिक महापुरुषों के समय था । आज तो सबका ही भीषणतम् या अन्तिम रूप नया कीर्तिमान (रिकार्ड) कायम कर दिया है । सभी या चारों युगों की सभी दूषित-भावनायें, दूषित-विचार एवं दूषित-कर्म के चक्रव्यूह के लड़ाई में अभिमन्यू से लड़ने के लिये सभी दुष्ट सातवें-मण्डप में जैसे इकट्ठे हो गये थे वैसे ही इकट्ठा होकर सत्य-धर्म को अभिमन्यु जैसे छल-कपट करके प्रायः समाप्त कर दिया है जिससे श्रीकृष्णजी, अर्जुन आदि योद्धाओं के माध्यम से तथा स्वयं भी आकर उन सभी दुष्टों का सफाया करके धर्मराज युधिष्ठिर का राज्य कायम किया था । पुनः वैसा ही दुष्टों द्वारा सत्य-धर्म रूप तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या सत्पुरुष की पहचान रूपी यथार्थतः धर्म को समाप्त करने के पश्चात् अपने समस्त प्रकाश-दूतों रूपी अध्यात्मवेत्ताओं के साथ परमब्रह्म या परमेश्वर या यहोवा या गाॅड या खुदा का साक्षात् पूर्णावतार हुआ है जो सभी से दूषितशब्दों, व्यवहारों, भावनाओं एवं दुष्टों का सफाया करे और करायेगा भी ।
सद्भावी मानव बन्धुओं !  मुझे तो अजीब आश्चर्य हो रहा है कि हिन्दू, जैन, बौद्ध, यहूदी, ईसाई, मुसलमान, सिक्ख, कबीर-पंथी, दरिया-दासी आदि आदि समस्त बन्धुगण ही आज अपने आधारभूत, मूल-सिद्धान्त रूप अद्वैत्तत्त्वया तौहीद या एकेश्वरवाद को ही समाप्त करने में उतनी ही जी तोड़ परिश्रम या अथक-परिश्रम में लगे हुये हैं जितनी कि उनके अभीष्ट देव रूप -- सत्पुरुष रूप अवतारी तथा महापुरुष रूप प्राफेट्स, पैगम्बर आदि प्रकाश-दूत या प्रकाश-प्रचारक अध्यात्मवेत्ताओं आदि को उठानी या करनी पड़ी थी । आज का हिन्दू-पैदाइश से हिन्दू माने जा रहे हैं, आज- जैनी पैदाइश से जैनी हो रहे हैं, आज का बौद्ध पैदाइश से बौद्ध हो जा रहे हैं, आज का यहूदी पैदाइश से यहूदी हो रहे हैं, आज के ईसाई पैदाइश से ईसाई हो रहे हैं, आज का मुस्लिम पैदाइश से मुसलमान हो रहे हैं, आज के सिक्ख पैदाइश से सिक्ख हो रहे हैं आदि आदि । यही इतनी गलत एवं अशुद्ध एवं दूषित भावना, दूषित-विचारों एवं दूषित कर्मों आदि को उत्पन्न एवं संरक्षण तथा विकास का आधार हो गया है क्योंकि इसमें आधार-भूत या मूल-भूत सिद्धान्त ही समाप्त होकर मात्र जनेऊ से ब्राम्हण, बपस्तिस्मा से ईसाई, एवं मुसलमानी (इन्द्रिय कटवाने) से मुसलमान बनने या होने लगे हैं तथा बहुदेववाद रूप बहुदेवपूजक, परमेश्वर के साथ मूर्ति एवं ग्रन्थों, किताबों एवं मन्दिर, मस्जिद, गिरिजाघर एवं गुरुद्वारों रूप स्थानों सह-भागीदारी रूप मुशरिक के पद्धति को लागू करने में अथक परिश्रम के साथ जुटे हुये हैं जो तौहीद या एकेश्वरवाद रूप अद्वैत्तत्त्व रूप सत्य-धर्म रूप यथार्थतः सनातन या यहोवा या परमेश्वर या इस्लाम को ही सफाया जढ़ी बनकर करने में लगे हैं जो उनके ही सिद्धान्त का सफाया है । वास्तव में तो हम सभी मानव बन्धु एक ही मानव एक ही रूप विशेष में एक ही मनु या आदम से उत्पन्न हुये हैं तथा एक ही परमेश्वर या यहोवा या गाॅड या खुदा के मूल सिद्धान्त रूप अद्वैत्तत्त्वम्एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति या गाॅड इज वन या ला। अिलाह अिल्ला हुव या 1 रूप सत्य-धर्म के मानने वाले हैं । तो फिर भेद कैसा ? भेद मूढ़ता एवं जढ़ता का ही सूचक है, पहचान करें । अन्त में---- सच्चा हिन्दू ही सच्चा ईसाई एवं सच्चा मुसलमान होता है तथा सच्चा ईसाई ही सच्चा हिन्दू एवं सच्चा मुसलमान और सच्चा मुसलमान ही सच्चा हिन्दू एवं सच्चा ईसाई होता है । दुष्ट एवं काफिर ही शैतानियत वश भेद उत्पन्न करके स्वार्थ की पूर्ति करते-कराते हैं ।
  

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