महावाक्य

महावाक्य
भगवद् प्रेमी सद्भावी बन्धुओं ! ‘‘महावाक्य से तात्पर्य उन वाक्यों से है जो भगवद् रहस्यों से भरपूर ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, प्राफेट्स, पैगम्बर आदि महापुरुषों द्वारा शोधित भगवद् रहस्यों से भरपूर सूत्रवत् वाक्यों से है ।’’ दूसरे शब्दों में, व्यक्तियों द्वारा उच्चारित स्पष्ट एवं पकड़ में आने वाली ध्वनियाँ अक्षरहै और अक्षरों के मेल-मिलाप से युक्त अर्थवत् बोध कराने वाला शब्दहै तत्पश्चात् शब्दों के माध्यम से किसी विषय-वस्तु की पूर्णता की जानकारी कराते हुये एक पूर्ण विराम तक प्रयुक्त शब्दों वाक्यहै और भगवद् विषयक रहस्यों से भरपूर शोधित सूत्रवत् वाक्य ही महावाक्यहै ।
सद्भावी बन्धुओं ! आइये अब हम आप सभी यथार्थता महावाक्यों की जानकारी करें तत्पश्चात् समाज में भ्रामक प्रचार रूप इनके दुरुपयोग को रोककर समाज-सुधार एवं समाजोद्धार हेतु इनके (महावाक्यों के) यथार्थता की जानकारी समाज जो विभिन्न सम्प्रदायों में बंट-बंटकर आपस में नासमझदारी के कारण लड़-मर रहे हैं, को दिया जाय, ताकि सभी मानव तो मानव है प्राणिमात्र को आपस में समझ-बूझ के साथ एकरूप या एकता का बोध करते हुये मेल-मिलाप से रहें, आपस में बैर-भाव के स्थान पर सद्भाव पूर्वक प्रेम-भाव को प्रतिस्थापित करें, विभिन्नता की दृष्टि को एकता की दृष्टि में बदलते हुये विश्व बन्धुत्व रूप वसुधैव कुटुम्बकम्महावाक्य को सार्थक बनाते हुये अपने जीवन को चरमो एवं परम लक्ष्य से युक्त करें । मानव मात्र को चरम एवं परम लक्ष्य परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या परमभाव या परम-शक्ति-सत्ता सामथ्र्यवान् रूप परमप्रभु से युक्त होने में महावाक्योंकी भूमिका क्या है ? इसकी उत्पत्ति कैसे होती है ? इसका शोधकत्र्ता कौन है ? सामाजिक पृष्ठभूमि में इसकी भूमिका क्या थी ? क्या हो गई है तथा क्या होनी चाहिये ? और अन्ततः समाज को इनसे कुछ उपलब्धि है ? यदि है तो किस रूप में ? आइये अब इसे जानते, देखते और समझते-बूझते हुये इसे अपने में अथवा अपने जीवन को इससे युक्त कर इनका सदुपयोग किया जाय ।
भगवद् प्रेमी सद्भावी बन्धुओं ! महावाक्यों की यथार्थ जानकारी देने के पूर्व दो शब्द यह भी बतला देना चाहूँगा कि किसी भी विषय-वस्तु तथा सत्ता-शक्ति को जितनी गहराई तक कोई जान-समझ पायेगा, उतनी ही का लाभ भी ले पायेगा, इसके साथ ही श्रद्धा एवं दृढ़ निष्ठा भी उचित लाभ हेतु अत्यावश्यक होता है क्योंकि श्रद्धा और निष्ठा के बगैर किसी भी सत्ता-शक्ति तथा सत्ता-शक्ति से सम्बन्धित महान् सत्पुरुषों की यथार्थता जानकारी भी नहीं हो सकता है और यथार्थ जानकारी के बगैर कभी भी आत्मिक अनुभूति तथा तात्त्विक बोध किसी भी परिस्थिति में सम्भव ही नहीं है, मिलना तो दूर रहा । महावाक्यों के द्वारा भगवद् विषयक जानकारियों की प्रामाणिकता की पुष्टि होती है जिससे श्रद्धा और विश्वसनीयता की वृद्धि और निष्ठा में स्थिरता आती है । सद्भावी बन्धुओं महावाक्यों की यथार्थतः जानकारी करना जीवन को सार्थक तथा आनन्द और कल्याणमय बनाना है ।

‘‘सत्यमनन्तं ब्रह्म’’
सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! सत्यमनन्तं ब्रह्म से तात्पर्य सत्य ही आदि-अन्त रहित ब्रह्म है’, से है । सत्यही ब्रह्म है और ब्रह्म ही सत्य है आगम-निगम-पुराण, बाइबिल, र्कुआन, गुरुग्रन्थ-साहब, रामायण, गीता आदि समस्त सद्ग्रन्थ तथा श्रीविष्णु जी, श्री रामचन्द्रजी, श्री कृष्णचन्द्र जी जो साक्षात् परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म या परमात्मा के अवतार थे । उन अवतारी सत्पुरुषों ने भी परमब्रह्म रूप परमात्मा को ही एकमात्र सत्यस्वीकार किया, कहा और उपदेश भी दिया था । यहाँ पर ब्रह्म का संकेत परमब्रह्म तथा आत्मा का संकेत परमात्मा से है क्योंकि आदि-अन्त रहित एकमात्र परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा ही होते हैं, ब्रह्म या ईश्वर या आत्मा आदि नहीं । ब्रह्म का आदि और अन्त परमब्रह्म होता है, ईश्वर का आदि-अन्त परमेश्वर होता है और आत्मा का आदि-अन्त परमात्मा होता है परन्तु परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा का आदि-अन्त होता ही नहीं । यह शाश्वत् और अमरपद होता है । यह अपरिवर्तनशील, शाश्वत् तथा सदा एक रूप रहने वाला अजन्मा और अमरपद होता है। यहाँ पर न तो बनना है और न बिगड़ना । बनना और बिगड़ना आत्मा से आरम्भ होकर आत्मा तक ही अन्त भी हो जाता है और अन्त में आत्मा जिस परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा से उत्पन्न रहती है, उसी में विलय कर जाती   है । आत्मा और ब्रह्म दोनों दो नहीं, अपितु एक ही हैं । रूप एक है नाम अनेक । जो महानुभाव जीव, आत्मा, परमात्मा या जीव, ईश्वर, परमेश्वर या जीव, ब्रह्म, परमब्रह्म को पृथक्-पृथक् नहीं जानते और नहीं देखते, नहीं समझते और नहीं पहचानते हैं वे ही हीन-ज्ञानया भ्रम पूर्ण अनुमान या आभासित-ज्ञान को ही यथार्थतः तत्त्वज्ञान या सत्य-ज्ञान समझ बैठते हैं और नाना सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर देते हैं जिससे समाज यथार्थता से दूर हटकर इन भ्रमपूर्ण सिद्धान्तों में ही यथार्थता की तलाश करने लगता है और न मिलने पर नास्तिकता की ओर बढ़ने लगता है । इसलिये सत्यता की यथार्थ जानकारी करने हेतु सर्वप्रथम शरीर से पृथक् जीव, ब्रह्म और परमब्रह्म को पृथक्-पृथक् स्तर से क्रियाशील जानते-देखते और समझते हुये तत्त्वज्ञान पद्धति से अद्वैत्तत्त्वबोध या एकत्त्वबोध के द्वारा सभी को एक ही परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा से उत्पन्न तथा उसी में विलय रूप बोध के माध्यम से परमतत्त्वम् या परमसत्य रूप परमात्मा या परमब्रह्म के प्रति पूर्ण समर्पण या शरणागत भाव में अपने जीवन को कर देना चाहिये । उसी परमात्मा या परमसत्य का जीवन है अज्ञानता के कारण अपना भास रहा है । इसे पुनः उसी को समर्पित कर देना ही हम सभी बन्धुओं का एकमात्र परम कत्र्तव्य है । परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा ही एकमात्र सत्यहै शेष सारी जड़-चेतन रूप सृष्टि ही आभासित-सत्य मात्र है यथार्थतः सत्य नहीं । यथार्थतः सत्य तो एकमात्र परमब्रह्म या परमात्मा ही है ।
सत्यमनन्तं ब्रह्म मात्र कथनी की बात नहीं होती है इसे तत्त्वज्ञान पद्धति से जानकारी, अनुभूति तथा बोध के द्वारा ही जाना-समझा जा सकता है ।  क्योंकि कथनी के अनुसार ही करनी तथा करनी के अनुसार की कथनी का होना सत्य कहलाता है  परन्तु परमब्रह्म या परमात्मा ही ऐसा होता है अन्य नहीं ।
सत्यभी दो तरह का होता है, आभासित-सत्य और यथार्थ-सत्य। आभासित सत्य वह है जिससे तथा जिसमें सारी सृष्टि एक-दूसरे के साथ व्यवहार करती या व्यवहरित होती है । जिसे सांसारिक व्यक्ति आपसी व्यवहार में सत्य बोलना तथा सत्य पर रहना आदि-आदि कहा करते हैं और परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या गाॅड या अल्लातआला जिससे व्यवहार करता है, वह तथा उसके निर्देशन और आदेश से होने वाले सम्पूर्ण कार्य ही यथार्थतः सत्य के अन्तर्गत होता है क्यों ? परमात्मा ही एकमात्र परमसत्य होता है इसलिये उसके द्वारा तथा उसके निर्देशन या आज्ञा में ही होने वाले सम्पूर्ण कार्य ही सत्य होता है उसमें विचार की भी गुंजाइश नहीं रहती है कार्य को कौन कहे। अतः परमात्मा तथा परमात्मा से सम्बन्धित सभी बातें या कार्य तो यथार्थतः सत्य में आता है अथवा यथार्थतः सत्य है तथा शेष जड़-चेतन से सम्बन्धित सारी सृष्टि के कार्य ही आभासित सत्य है । हम सभी बन्धुओं को आभासित सत्य से वास्तविक सत्य की ओर बढ़ते रहना चाहिये, जब तक कि उपलब्ध न हो जाय और वास्तविक या यथार्थ सत्य की उपलब्धि हो जाने पर अपने जीवन को पूर्णतः समर्पण भाव में उसी पर अर्पित कर देना चाहिये ।
सत्यमनन्तं ब्रह्ममात्र कथनी की बात नहीं है सर्वश्रेष्ठ तो इसके यथार्थता की जानकारी अनुभूति और बोध के साथ ही करना चाहिये तत्पश्चात् उसी के अनुसार व्यवहार करना चाहिये । किसी भी विषय-बात की यथार्थतः जानकारी के बगैर उचित लाभ मिल ही नहीं पाता है तो परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या परमसत्य से उचित लाभ उनकी यथार्थ जानकारी दर्शन और पहचान करते हुये बोध के बगैर कैसे मिल सकता है । कदापि नहीं मिलेगा । इसलिये हम सभी को वास्तविक सत्य जो आदि-अन्त रहित हो जानना चाहिये ।

ज्ञानमनन्तं ब्रह्म
ज्ञानमनन्तं ब्रह्म से तात्पर्य ज्ञान ही अनन्त ब्रह्म हैसे है । ज्ञानी का परम ही अज्ञानी का अनन्त तथा अनादि है । अज्ञानी परमब्रह्म परमात्मा को तो जानता ओर पहचानता नहीं है इसीलिये अनन्त तथा नेति-नेति शब्दों को प्रयुक्त करते रहते हैं जबकि ज्ञानी सत्पुरुष अच्छी प्रकार से यथार्थतः तत्त्वज्ञान पद्धति से भी जानता और देखते हुये पहचानता है । इसीलिये जिस रूप में जानता और पहचानता है उसी के प्रतिपूर्ण शरणागत भाव से सेवार्थ अपने को उनके (परमब्रह्म या परमात्मा के) कमलवत् चरणों में समर्पित कर देता है । जिज्ञासु और श्रद्धालु भक्ति द्वारा परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा की यथार्थतः जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान करना ही तत्त्वज्ञान पद्धति में देखा जाता है कि आत्म-शक्ति, जीव, शरीर, संसार आदि जड़-चेतन रूप सारी सृष्टि की उत्पत्ति, संचालन, नियन्त्रण तथा विलय भी उसी परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म से ही हुई है और अन्ततः  इसका विलय भी उसी में होता है । इसी आदि और अन्त से युक्त एकमात्र परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म रूप परमात्मा ही है । इसीलिये अनन्त ब्रह्म नाम से अज्ञानी जन तथा परम होने के कारण परमब्रह्म ज्ञानी जन कहते हैं क्योंकि ज्ञानी जन तो स्पष्टतः जानते और देखते हुये पहचानते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि तथा इससे परे भी परमात्मा ही सर्वोच्च, सर्वोत्कृष्ट, सर्वोत्तम एवं परम दिखलायी देते हैं, इसीलिये उन्हें परमब्रह्म या परमात्मा या परमसत्य कहा जाता है तथा उन्हीं की यथार्थ जानकारी और पहचान ही तत्त्वज्ञान या अनन्त ज्ञान या ज्ञान ही वह अनन्त ब्रह्म है क्योंकि ज्ञान में ही योग तथा कर्म भी आकर समाप्त हो जाता है । सम्पूर्ण योग तथा सम्पूर्ण कर्म की भी उत्पत्ति तथा अन्त में उसी में विलय होते हुये दिखलायी देता है । इसीलिये ज्ञान को भी अनन्त ब्रह्म के नाम से महापुरुषों ने कहा है और है भी क्योंकि ज्ञान परमब्रह्म परमेश्वर या परमात्मा से ही सम्बन्धित होता है । परमात्मा के सिवाय परमात्मा को और कोई जना, बता, दिखा और बोध करा ही नहीं सकता है और एकमात्र परमात्मा की जानकारी ही तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या अनन्त ज्ञान भी है ।
ज्ञान ही अनन्त ब्रह्म है इसकी स्पष्ट पुष्टि इससे होती है कि ज्ञान परमब्रह्म या परमात्मा के सिवाय और किसके पास रहता ही नहीं । परमब्रह्म और ज्ञान दोनों का आपसी सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है दोनों एक-दूसरे के बगैर महत्वहीन हो जाते हैं क्योंकि ज्ञान परमब्रह्म की यथार्थ जानकारी और पहचान है तथा परमब्रह्म ही एकमात्र तत्त्वज्ञान या ज्ञान का दाता है । यानी जहाँ ज्ञान होगा वहीं परमब्रह्म होगा और जहाँ परमब्रह्म होगा वहीं ज्ञान होगा । दोनों एक-दूसरे से पृथक् हो ही नहीं सकते हैं । ज्ञान से अलग परमब्रह्म का पहचान ही नहीं हो सकता है और पहचान के बगैर किसी वस्तु का महत्व भी नहीं होता है और किसी का महत्व ही नहीं समझ में आता है तो उससे यथार्थ लाभ की उपलब्धि नहीं हो सकती है । किसी वस्तु से कम महत्व उसके यथार्थ जानकारी यानी ज्ञान की नहीं होती है इसलिये ज्ञान ही वस्तु का महत्व है । ज्ञान ही परमात्मा का महत्व तथा परमात्मा ही ज्ञान का अभीष्ट उपलब्धि होता है इसलिये ज्ञानमअनन्तं ब्रह्म कहा है ।
ऋषि-महर्षि, ब्रह्मर्षि, योगी-यति तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्मा, आलिम-औलिया, पीर-पैगम्बर तथा प्राफेट्स आदि ने आदि काल से वर्तमान तक के समस्त ही जीव और आत्मा वाले यानी सोऽहँ-ह ँ्सो व ज्योति वाले जीव तथा आत्मा के बीच मिलन की क्रिया-प्रक्रिया को ही ज्ञान घोषित कर दिये हैं और घोषित कर भी रहे हैं जबकि यह ज्ञान नहीं  है, योग है, अध्यात्म है, साधना है । जीव और आत्मा के बीच के व्यवहार को ज्ञान कदापि नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ज्ञान तो एकमात्र परमात्मा का पहचान और मिलने तथा व्यवहार का माध्यम होता है आत्मा या ब्रह्म का नहीं । इसलिये ऐसे महानुभावों को हम तो सर्वदा निर्देशित करेंगे कि योग-साधना या आध्यात्मिक क्रियाओं-प्रक्रियाओं को कदापि ज्ञान या तत्त्वज्ञान या सत्य-ज्ञान न कहें, साथ ही साथ आत्मा को ही परमात्मा, ब्रह्म को ही परमब्रह्म, ईश्वर को ही परमेश्वर, जीवात्मा (ह ँ्सो) को ही परमात्मा (परमतत्त्वम्-आत्मतत्त्वम्) तथा आत्म-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति को ही परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म रूप परमेश्वर रूप परमात्मा आदि घोषित न करें । और साथ ही यह जानने का सदा प्रयत्न करें कि शरीर से पृथक् जीव; जीव से पृथक् आत्मा और आत्मा से पृथक् परमात्मा अपने-अपने नामों और रूपों से पृथक्-पृथक् होते हैं। देखना है कि किस प्रकार अद्वैत् से द्वैत्, द्वैत् से अद्वैत् तथा अद्वैत् में द्वैत् तथा द्वैत् में अद्वैत् एक साथ ही किस प्रकार रहता है यह महिमा एकमात्र ज्ञान की ही है जो स्पष्टतः इन सभी बातों को दर्शाता है । यही कारण है कि ज्ञानमनन्तं ब्रह्म भी कहलाता है । बन्धुओं ज्ञान की तलाश ही परमब्रह्म की तलाश है तथा ज्ञान का प्राप्ति ही परमात्मा की प्राप्ति है । के साथ ही अपनी शरीर जिससे कार्य करता है को लगाये रहता; विद्यातत्त्वम् या तत्त्वज्ञान या अपने परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् का ज्ञान प्रदान करता हुआ; असुरों, दुष्टों अभिमानियों, अत्याचारियों तथा भ्रष्टाचारियों का विनाश करता-कराता हुआ; सज्जनों की शान्ति और आनन्द से युक्त व्यवस्था करता हुआ, सत्पुरुषों का राज्य अथवा समस्त राजकीय कर्मचारियों, अधिकारियों, विधायकों, सांसदों, मन्त्रियों, विद्वानों, मान्त्रिकों, तान्त्रिकों, साधकों, सिद्धों, योगी-यतियों, ऋषि-महषिर्यों, आलिम-औलियों पीर-पैगम्बरों, प्राफेट्स तथा समस्त वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं को सत्पुरुष बनाते हुये ठीक करता है, वही एकमात्र परमब्रह्म या सर्वोच्च-शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य रूप पूर्ण ब्रह्म का पूर्णावत होता है, उसी को अपने तन-मन-धन यानी शरीर को मन-बुद्धि के साथ पूर्णतः श्रद्धा तथा अनन्य भक्ति के साथ जब समर्पित करता हुआ ज्ञान से युक्त हो जाया जाता है तब प्रज्ञा या प्रज्ञान की यथार्थता की पूर्णतः जानकारी अनुभूति और बोध के साथ ही हो पाती है । प्रज्ञा या प्रज्ञान ऐसी कोई सामान्य बात या अवस्था नहीं कि झट से आये तत्त्वज्ञान पाये और समझ गये । इसकी यथार्थता की जानकारी और समझदारी हेतु यह अत्यावश्यक है कि तत्त्वज्ञान पद्धति के शर्तों अर्थात् वचनजो यथार्थतः परमसत्य हो, का व्यवहार तथा पालन होना चाहिये । कोई व्यक्ति शरीर पोषण के अन्य (परमात्मा से पृथक्) साधनों में लगा रहकर परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा या प्रज्ञान या प्रज्ञा को कदापि नहीं जान सकता है । प्रज्ञा या प्रज्ञान ही परमब्रह्म की यथार्थ स्थिति होती है ।

तत्त्वमसि
सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुआंें ! तत्त्वम्अपने-आप में जितना ही सत्यहै उतना ही भ्रामक भी हो गया है । यह परमसत्य होते हुये भी सर्वाधिक भ्रामक शब्द हो गया है । यह परमब्रह्म वाला शब्द होते हुये भी सर्वाधिक-भ्रम वाला शब्द हो गया है । इसका कारण यह है कि आज हर थोड़ा-बहुत जानकार विद्वान्, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, मान्त्रिक, तान्त्रिक, साधक, सिद्ध, आलिम-औलिया, पीर-पैगम्बर, प्राफेट्स, शास्त्रीय-महात्मन् तथा लगभग समस्त अध्यात्मवेत्ता सन्त-महात्मन् ही तत्त्वका वर्णन करने, तत्त्व की शिक्षा और दीक्षा देने लगे हैं, जबकि यथार्थता यह है कि यही एक एकमात्र शब्द या वचनया उपाधि है जो परमब्रह्म परमेश्वर या परमात्मा या गाॅड या अल्लातआला के अपने दिव्य आकाश रूप परमधाम या अमरलोक या सत्लोक या गोल या विहिस्त से भू-मण्डल पर अवतरण होने पर शरीर ग्रहण करने पर अपने मूलभूत परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्)रूप का परिचय कराने या देने हेतु सुरक्षित रहता है । अर्थात् यह वह शब्द-ब्रह्म है जो परमब्रह्म का यथार्थतः परिचय कराता है । इसके सिवाय कोई अन्य शब्द या क्रिया-प्रक्रिया नहीं है जिससे परमब्रह्म की यथार्थतः जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये अद्वैत्तत्त्वबोध या एकत्वबोध रूप पहचान हो सके । तत्त्वम्से युक्त शरीर ही अवतारी होती है पर यह भी याद रखने की बात है कि तत्त्वम्बनने या बिगड़ने वाला शब्द नहीं है कि जो कोई भी मनमाना जिसे चाहे उसे ही तत्त्वम् कह-कहा कर घोषित कर-करा देवें । यह वह शब्द है जो सृष्टि के पूर्व था और पश्चात् भी रहेगा ।
बन्धुओं पानी या जल या आब या वाटर आदि बहुचर्चित अनेक नाम तथा एक वस्तु है । जल आदि शब्दों से जल की सामान्य जानकारी तो हो जाती है कि प्यास बुझाने वाली एक तरल-पदार्थ है परन्तु स्वतः में पानी या जल की यथार्थतः क्या है जब एक विशिष्ट प्रक्रिया से गुजरते हैं कि पानी मूलतः हाइड्रोजन तथा आक्सीजन का संयुक्त रूप है जो सूत्रवत् वैज्ञानिक भाषा में एच टू ओ (भ्2व्) कहलाता है । यानी जल मूलतः एच टू ओ (भ्2व्) होता है उसी प्रकार भगवान्, परमात्मा, अल्लातआला, खुदा, गाॅड, परमब्रह्म, परमेश्वर, परमात्मा, परमसत्य, परमभाव यानी परमतो सामान्यतः सब जानते हैं कि एक सर्वोच्च- शक्ति-सत्ता सामथ्र्य का बोध कराने वाला है या बोध होता है फिर भी उसकी यथार्थतः या मूलतः जानकारी, दर्शन और बात-चीत करते हुये पहचान करना हो तो कैसे जाना, देखा तथा पहचान किया जाय; तो उसकी जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान करने वाली पद्धति ही ज्ञान कहलाती है । ज्ञान यानी यथार्थतः ज्ञान जो सत्य-ज्ञान पद्धति है, के अन्तर्गत उपलब्ध सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य को जाना, देखा तथा बोध करते हुये यथार्थतः पहचान किया गया तो स्पष्टतः जानकारी, दिखलायी तथा बात-चीत करते हुये अद्वैत्तत्त्वबोध या एकत्वबोध या तौहीद या गाॅड इज वन (ळव्क् पे व्छम्) का बोध करते हुये  पहचाना गया तो वह परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप शब्द-ब्रह्म रूप में उपलब्ध हुआ। हालांकि यह बात भी परमसत्य ही है कि परमात्मा के सिवाय परमात्मा के इस तत्त्व-विषयक रहस्य को कोई समझा-बुझा तथा यथार्थतः बोध कराते हुये पहचान करा ही नहीं सकता है । जब होगा तब परमात्मा के पूर्णावतार वाली शरीर के माध्यम से ही हो सकता है अन्य किसी शरीर द्वारा नहीं, यहाँ तक कि ईश्वर के अवतार रूप अंशावतार द्वारा भी इसकी आंशिक जानकारी मात्र ही उपलब्ध हो सकती है पूर्णतः तात्त्विक जानकारी यथार्थतः बोध के साथ ये भी अधिकृत नहीं होते हैं क्योंकि वह तो एकमात्र पूर्णावतार हेतु ही सुरक्षित एवं व्यवहृत पद्धति एवं उपलब्धि है जिसे अब तक मात्र तीन सत्पुरुषों -- श्रीविष्णु जी महाराज, श्रीरामचन्द्र जी महाराज, एवं श्रीकृष्णचन्द्र जी महाराज आदि ने ही प्रयुक्त किया है जो क्रमशः सतयुग, त्रेतायुग तथा द्वापर युग में अवतरित होकर किये-दिये थे । वर्तमान में भी अब उसी परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म रूप परमात्मा रूप अल्लातआला रूप गाॅड रूप सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य रूप भगवान् का अवतरण हो चुका है जिसकी जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये वर्तमान सौभाग्यशाली घड़ी-मुहुर्त में पहचान करते हुये अनन्य सेवा भक्ति हेतु निरभिमान एवं अहंकार रहित भाव में समर्पित होते हुये शरणागत होकर कार्य करना चाहिये । वर्तमान में ही तत्त्वम्की यथार्थतः जानकारी सम्भव है क्योंकि परमात्मा के पूर्णावतार की घड़ी-मुहुर्त है जो चल रही है ।
बन्धुओं कितने अफसोस की बात है कि हमारे विद्वत् बन्धु तो विद्वत् बन्धु है हमारे आध्यात्मिक सन्त-महात्मन् बन्धु भी मनमाना तौर-तरीका अपना कर उसे ही तत्त्वज्ञान की पद्धति घोषित कर-करा दिये हैं तो वर्तमान में भी बड़े पैमाने पर घोषित कर-करा रहे हैं जिससे तत्त्वज्ञान की सत्य एवं यथार्थ पद्धति बतलाने में भी इतनी परेशानी एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है कि हम तथा हमारे ही सत्य समाज रूप सत्पुरुष अनुयायियों को बार-बार जेल-यातना रूप में कार्यावरोध भी उत्पन्न किया जा रहा है । आज के चोर, लूटेरा, डाकू, बदमाश, अत्याचारी एवं भ्रष्टाचारी अपनी इन उपाधियों को हम लोगों पर ही उल्टे-मढ़ना प्रारम्भ कर दिये हैं जबकि हम लोग ऐसे लोगों के सफाया का संकल्प ही ले बैठे हैं क्योंकि हमारे क्रिया-कलाप का यह आधा भाग है । सामान्य आध्यात्मिकों की क्या बातें किया जाय जबकि शंकर जी ने भी सोऽहँ-ह ँ्सो को ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप तत्त्व घोषित कर-करा दिया है जिससे वर्तमान तथा उसके पश्चात् के समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्मन् बन्धु ही उसी का उदाहरण देते हुये सोऽहँ-ह ँ्सो व आत्म-ज्योति को ही तत्त्वम्घोषित करने-कराने लगे हैं जो सरासर यानी पूर्णतः गलत एवं जबर्दस्त भ्रामक है । इतना ही नहीं वर्तमान वैज्ञानिक बन्धुगण तो पदार्थ-तत्त्वों को ही मूल-तत्त्व या परमतत्त्व समझ बैठे हैं । इतना ही नहीं ये दोनों आध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक  ही अपने-अपने तथ्यों को सत्य तथा दूसरे को असत्य घोषित  करने-कराने में लगे हैं जबकि दोनों ही असत्य है ।
बन्धुओं ! यथार्थ बात तो यह है कि न तो पदार्थ-तत्त्व रूप जड़-पदार्थ या जड़-तत्त्व ही यथार्थतः परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् है और न तो सोऽहँ-ह ँ्सो तथा शिवोऽहँ और आत्मज्योति  या ब्रह्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म या ईश्वर या  नूर या सोल रूप चेतन-आत्मा या चेतना ही । यथार्थतः मूल-तत्त्व या परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् तो इन दोनों का ही उद्गम श्रोत तथा विलय रूप एक इन दोनों से ही परे सर्वोच्च-सर्वोत्कृष्ट, सर्वोत्तम एवं परम-भावरूप परमसत्य है जिसकी जानकारी, दरश-परश तथा पहचान ही, यथार्थतः तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या सत्य-सनातन धर्म का वास्तविक रूप है ।

तत्त्वमसियथार्थतः तत्त्वम्का ही मूलतः एवं भ्रामक रूप:-
तात्त्विक सद्भावी बन्धुओं ! यथार्थतः तत्त्वमसि तो शब्द ही नहीं है । तत्त्वमसि वास्तव में तो तत्त्वम्का ही गलत एवं भ्रामक रूप है क्योंकि तत्त्वम्दो शब्दों का संयुक्त रूप है जैसे-- तत् $ त्वम् त्र तत्त्वम् । तत् संकेत परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा के तरफ है तथा त्वम् का संकेत जिज्ञासु रूप जीवात्मा के तरफ है । जब दो शब्दों तत् $ त्वम् मिलकर ही तत्त्वम् होता है तो असिकहाँ से आ गया कि तत्त्वमसि हो गया। यदि यह कहा जाय कि मध्यम पुरुष एक वचन अस् धातु रूप से असि लिया गया है क्योंकि तत्त्वम् मध्यम पुरुष एक वचन का युस्मद् शब्द रूप है तो इससे बढ़कर मूढ़ता क्या होगी कि स्पष्टतः दिखलायी दे रहा हैं कि तत् और त्वम् दो शब्दों के मेल से तत्त्वम् बना है जिसमें तत् प्रथम पुरुष तथा त्वम् मध्यम पुरुष का रूप है तो दोनों के संयुक्त रूप में मात्र मध्यम पुरुष का असिक्यों लगेगा ? यदि यह कहा जाय कि त्वम् पद प्रधान है तो इसमें (तत्त्वम् में) त्वम् पद प्रधान भी तो नहीं है इसमें तो तत् पद प्रधान है क्योंकि तत् ही परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा का वाचक और त्वम् जिज्ञासु अज्ञानी का (वाचक); तो परमात्मा वाचक पद ही प्रधान होना चाहिये न कि अज्ञानी जिज्ञासु वाचक पद । परमात्मा वाचक पद अद्वैत्तत्त्व बोध या एकत्वबोध प्रधान होता है फिर पुरुष भेद का बात कहाँ ? उसमें तो न तो पुरुष भेद है और न वचन भेद, न रूप भेद है और न लिंग-भेद । अर्थात् उसमें प्रथम-पुरुष, मध्यम-पुरुष तथा उत्तम पुरुष का भेद कहाँ ? वह तो प्रथम, मध्यम तथा उत्तम पुरुष, एकवचन, द्विवचन और बहुवचन तथा पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नंपुसकलिंग आदि-आदि सभी से युक्त एकमात्र सबसे युक्त रहते हुये भी सबसे मुक्त परे यानी सबसे रहित मात्र तत्त्वम्ही शुद्ध है । तत्त्वम् का ही परिपूर्णतम् रूप आत्मतत्त्वम्है जो यथार्थतः पूर्णावतार रूप अवतारी का मूलतः तात्त्विक रूप या परिचय है ।
अन्ततः बन्धुओं को बतलाऊँ कि तत्त्वम्, आत्मतत्त्वम् अथवा परमतत्त्वम् में किसी भी प्रकार का शब्द-रूप विधान धातु-रूप विधान लिंग रूप विधान, वचन रूप विधान तथा कारक आदि व्याकरण के किसी भी विधान के अन्तर्गत यह नहीं आता है । अर्थात् उस पर व्याकरण का कोई विधान ही लागू नहीं होगा क्योंकि व्याकरण अपरा विद्या के अन्तर्गत आता है यानी अपरा विद्या का एक उपांग मात्र होता है जब कि तत्त्वम्अपरा और परा दोनों विद्या-अविद्या का ही उद्गम एवं विलय रूप होता है यानी पिता रूप तत्त्वमसि अथवा तत्त्वमस्मि रहता तो थोड़ा-बहुत विचार भी किया जाता क्योंकि परमब्रह्म परमेश्वर या परमात्मा प्रथम और उत्तम पुरुष है क्योंकि परमात्मा ही आदि और सर्वोत्तम या पुरुषोत्तम होता है और है भी और रहेगा भी परन्तु इन जढि़यों को क्या कहा जाय कि इन्हें कैसे वह मध्यम पुरुष दिखलायी देने लगा, जबकि कदापि मध्यम पुरुष नहीं होता और न है, न होगा। इस प्रकार तत्त्वमसि तत्त्वम्का ही गलत एवं भ्रामक रूप है । यथार्थतः रूप तो तत्त्वम्मात्र ही है ।
सोऽहमस्मि--  सद्भावी महावाक्य प्रेमी बन्धुओं ! सोऽहमस्मि को अनेकों महापुरुषों ने महावाक्य की श्रेणी में रखा है लेकिन वास्तविकता इससे बिल्कुल ही अलग है क्योंकि यह महावाक्यों की तरह वाणी का विषय नहीं होता, अपितु यह तो आत्मा और जीव के बीच होनी वाली क्रिया-प्रक्रिया के मध्य की स्थिति है । आत्मा का जीव भाव में परिवर्तित होकर शरीर से कार्य करने हेतु जो आत्म से जीव की गति-विधि तो सोऽहँ तथा पुनः जीव का आत्मा से मिलकर आत्मामय या ब्रह्ममय रूप जीवात्मा की गति-विधि ह ँ्सो है । उसी प्रक्रिया को कुछ साधक-सिद्ध बन्धु शिवोऽहँ से जानते हैं ।
अध्यात्म के जिज्ञासु परन्तु आध्यात्मिक साधना से रहित बन्धुगण सोऽहँ-ह ँ्सो की प्रक्रिया के स्थान पर सोऽहमस्मि, सोऽहमस्मि आदि कह-कह कर जाप किया करते हैं तथा उसका हिन्दी अर्थ कर-कर के वही मैं हूँविचार करने लगते हैं जो अशुद्ध ही नहीं बल्कि बिल्कुल ही गलत भी है ।
सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! व्याकरणाचार्यों वैयाकरणिक पण्डितों, विद्वानों आदि ने परमात्मा तथा तत्त्वज्ञान से सम्बन्धित और आत्मा तथा योग-साधना या अध्यात्म से सम्बन्धित मूल-शब्दों को तोड़-मरोड़ कर ऐसा चैपट कर दिया है कि लगभग सारे के सारे तत्त्व-विषयक तथा अध्यात्म विषयक मूलतः रहस्यात्मक शब्दों की गरिमा को ही समाप्त कर दिये हैं जिसका परिणाम यह हुआ कि उन रहस्यात्मक शब्दों का रहस्य तो समाप्त प्रायः ही कर दिये हैं या हो गये हैं, वे अपने सत्यता एवं यथार्थता से भी दूर हो गया । जिससे इसका महत्व ही समाप्त प्रायः हो गया, व्यक्तियों में इन शब्दों के प्रति अनास्था उत्पन्न होने लगी तथाबहुतायत संख्या में अनास्था हो भी गई है जिससे चारो तरफ ही नास्तिक, असुर, अभिमानी, दुराचारी, अत्याचारी, भ्रष्टाचारी एवं अहंकारियों का भरमार हो गया है । जिधर देखिये उधर ही छाये हुये हैं । मात्र किसी जाति क्षेत्र और सम्प्रदायों आदि में ही नहीं, अपितु सारे विश्व के सकल समाज की ही यह दशा दिखलायी दे रही है । सज्जन व्यक्ति तो लगता है कि भूमिगत हो गये हैं । आज एक भी व्यक्ति सत्य बोलते तथा अपने वचनों पर कायम रहते हुये नहीं दिखलायी दे रहा है जबकि सत्य एवं वचनपर ही धरती को टिकना या कायम रहना है । यह सारा दुष्परिणाम वैयाकरणिकों, पण्डितों, व्याकरणाचार्यों, विद्वानों, शास्त्रीय सन्त-महात्माओं द्वारा परमात्मा या तत्त्व-विषयक तथा आत्मा या अध्यात्म-विषयक रहस्यात्मक शब्दों को तोड़-मरोड़ कर मनमाना अर्थों द्वारा उन शब्दों की सत्यता यानी यथार्थता तथा उसके प्रभावों और गरिमा को समाप्त कर दिया गया है, कर दिया जा रहा है जिसका परिणाम यह हो रहा है कि परमात्मा तो परमात्मा है आत्म-शक्ति की भी खिल्ली उड़ायी जा रही है जिसके बगैर जीवन ही सम्भव नहीं है जो प्रत्येक शरीरों से ही सीधे सम्बन्धित है । क्या खिल्ली उड़ाने वाले में जीवात्मा नहीं है, क्या उनकी जीवात्म परमात्मा द्वारा ही संचालित नहीं है, उनकी जीवात्मा किसी वैज्ञानिक प्रयोगशाली में बनी है, प्रयोगशाली ही उनकी जीवात्मा का संचालक है, वे शरीर छोड़ने के पश्चात् किसी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में जायेंगे ? परमात्मा और आत्म-शक्ति का केन्द्र बिन्दु अथवा सत्य और शक्ति का केन्द्र बिन्दु क्या उन नास्तिकों के घर-नौकरी तथा वैज्ञानिकों के प्रयोगशाला में ही नहीं न है । यदि है तो थोड़ा हमें या हमारे समाज को भी तो जनाया-दिखाया जाय । इन अन्धों को कौन समझावे कि परमात्मा और आत्म-शक्ति के बगैर सृष्टि का कायम रहना ही मुश्किल है । तुम लोगों को परमात्मा और आत्म-शक्ति से घृणा है तो सत्य और शक्ति को तो जानना, देखना और समझते हुये पहचान कर लेना चाहिये । परमात्मा और आत्मा अथवा सत्ता और शक्ति अथवा सत्य शक्ति की यथार्थतः जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये स्पष्टतः पहचान कर लेना चाहिये । यदि होता हो तो कर लें और न होता हो तो हमारा यही मुख्य कत्र्तव्य कर्म है कि संसार-शरीर जीव-आत्मा तथा परमात्मा की पृथक्-पृथक् स्पष्टतः दर्शन के साथ ही जानकारी एवं पहचान कराते हुये उत्कट जिज्ञासु निष्कामी श्रद्धालु एवं वास्तविक सत्यान्वेषी तथा सत्य एवं यथार्थ परीक्षण वाला मिले तो मैं सृष्टि के किसी भी जड़-पदार्थ एवं चेतन-जीवात्मा की मूलतः उत्पत्ति से लगायत विलय तथा उसके पश्चात् उसके गति-विधि को भी सैद्धान्तिक, प्रायौगिक एवं व्यावहारिक तीनों रूपों में ही, व्यक्तिगत नहीं अपितु सार्वभौम रूप में बताने, जनाने, दिखाते हुये यथार्थ पहचान कराने को, परीक्षण रूप में भी सदा ही तैयार हूँ, बशर्ते लक्ष्य या उद्देश्य सदुपयोग का होना चाहिये, दुरुपयोग का नहीं । वैयाकरणिकों को बार-बार कहा जा रहा है कि व्याकरण का कोई विधान परमात्मा तो परमात्मा है आत्मा और जीव पर भी लागू नहीं होता है क्योंकि परमात्मा और आत्मा को शब्द-रूप धातु रूप, लिंग, बचन कारक आदि किसी भी विधान में बाँधना मूढ़ता और पागलपन के सिवाय कुछ है ही न हीं । इन अन्धों को सोचना चाहिये कि सांसारिक कोई विधान परमात्मा रूप सत्ता तथा आत्मशक्ति रूप शक्ति जो विद्या-तत्त्व तथा परा-विद्या का उद्देश्य या लक्ष्य या अभीष्ट उपलब्धि होता है, पर अपरा विद्या के अन्तर्गत दश अंगों--- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद रूप चारों वेद तथा शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्ति, छन्द और ज्योतिष रूप छः बेदाहैं । सब मिलकर यह दश अपरा-विद्या के अंग कहलाते हैं । हालांकि आत्मा और परमात्मा के विषय के विषय में भी वेदों में वर्णन है परन्तु उतने अंश जितना तत्त्व-विषयक तथा अध्यात्म-विषयक है, को छोड़कर शेष समस्त भाग ही अपरा-विद्या के अन्तर्गत आता है । अब विचारणीय बात तो यह है कि अपरा-विद्या का विधान विद्या-तत्त्व तो विद्या-तत्त्व है, परा-विद्या पर भी कैसे लागू हो सकता है अर्थात् लागू नहीं हो सकता । विद्या-तत्त्व रूपी तात्त्विक विषय पर अपरा का विधान तो स्वप्न में भी कल्पना करना मूढ़ता और पागलपन ही होगा । इस प्रकार से सोऽहमस्मि कहना सरासर गलत एवं भ्रामक विधान है इस बात की जानकारी में सन्देह हो तो योग-साधना या अध्यात्म की साधना प्रक्रिया को करके सत्यता की यथार्थतः अनुभूति के माध्यम से परीक्षण कर लिया जाय तो स्पष्टतः मिलेगा कि स्वास में सः और निःस्वास में अहंकी ही ध्वनि होती है जो संयुक्त रूप में सोऽहँ-ह ँ्सो की उपाधि से  जानी जाती है । अन्ततः यह बात स्पष्टतः सत्यता के साथ क्रिया-प्रक्रिया द्वारा जान लेना चाहिये कि सोऽहमस्मि गलत है इसका सही रूप सोऽहँ-ह ँ्सो यानी आत्मा से जीव-जीव से आत्मा है ।

शिवोऽहँ
सद्भावी कल्याणकारी बन्धुओं ! योग-साधना या अध्यात्म के अन्तर्गत स्वास-निःस्वास में होने वाले सोऽहँ-ह ँ्सो के स्थान पर ही नासमझदारी एवं शिव के प्रति निष्ठा-भाव के कारण स्वास में शिवः तथा निस्वास में अहँ को भ्रम-वश प्रतिस्थापित करते हुये स्वयं को शिव घोषित करने-कराने लगते हैं ओर शिव का अवतारी बनते-बनते भगवान् या परमात्मा का अवतारी रूप स्वयं को ही मनमाना रूप मे। पूर्णावतार भी बन  बैठते हैं । वास्तव में शिवोऽहँ होता नहीं है, होता तो है सोऽहँ-ह ँ्सो; परन्तु नासमझदारी एवं भ्रमवश ही माना जायेगा क्योंकि दोनों की क्रिया-प्रक्रिया एक ही होती है तथा दोनों को एकीभाव में देखा भी जाता है, अर्थ भी दोनों का एक ही होता है फिर भी ध्वनि वास्तव में सोऽहँ-ह ँ्सो ही होती है शिवोऽहँ नहीं । शिवोऽहँ समझना तो साधना अनुभूति का दोष नहीं, अपितु साधक  की कमी है ।
साधक बन्धुओं ! आप लोगों से एक बात बतलाऊँ जो यथार्थतः सत्य एवं समझने में आने वाला है यह है कि सोऽहँ-ह ँ्सो के स्थान पर शिवोऽहँ समाज में कैसे प्रयुक्त हुआ तथा शिवोऽहँ भ्रम-वश तथा सोऽहँ-ह ँ्सो ही यथार्थ है क्या इसका कोई मान्य एवं प्रभावी रूप में कोई प्रमाण है तो वह किसका आदि के साथ ही जानकारी जरुरी है । आइये अब सोऽहँ-ह ँ्सो तथा शिवोऽहँ की यथार्थता के तरफ ध्यान दिया जाय और जो सत्य तथा प्रमाणित हो उसे ही साधक समाज में प्रभावी रूप में रखा जाय ताकि योग-साधक बन्धुओं का भ्रम समाप्त होकर यदि साधना ही करना चाहते हैं तो यथार्थतः जानकारी के साथ करें ताकि उचित लाभों को हासिल कर सकेें ।
योग-साधना या अध्यात्म के आदि शोधकत्र्ता शंकर जी हैं यानी शंकर जी ने ही सर्वप्रथम योग-साधना या अध्यात्म के क्रिया-प्रक्रिया का शोध किया था । जैसा कि सर्वविदित है कि शिव-स्वरोदय शंकर जी की वाणी है जिसमें शिवजी ने पार्वती से स्पष्टतः कहा है कि इला चन्द्रमा तथा पिला सूर्य प्रधान नाड़ी है परन्तु सुषुम्ना साक्षात् ह ँ्सो रूप शम्भु प्रधान जिसमें प्रवेश के समय सः तथा निकास (स्वर-निकास) के समय अहं ध्वनि होती रहती है जिसमें सः शक्ति रूप तथा अहं शिवरूप होता है परन्तु दोनों के संयुक्त होने रूप में ह ँ्सो शिव-शक्ति रूप या ब्रह्म-शक्ति रूप आत्म-शक्ति ही दिखलायी दी, जिससे शंकर जी ने सोऽहँ-ह ँ्सो को अपना ही रूप कहने लगे । जब शंकर जी सोऽहँ-ह ँ्सोमय दिव्य-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या आत्म-ज्योति को ज्योतिस्वरूप शिव कहना शुरू किया क्योंकि स्वास- निःस्वास रूपी अजपा-जप के साथ ध्यान-समाधि में अनुभूति किया कि योग-साधना या अध्यात्मक शान्ति और आनन्द की अनुभूति की एक अच्छी क्रिया-प्रक्रिया है जो अशान्ति में शान्ति तथा शोक-कष्ट में भी आनन्द प्रदान करती है । शंकर जी ने साधना-अभ्यास जिज्ञासु साधकों के लिये बतलाये और योग-साधनाभ्यासी साधकों ने साधना में शान्ति और आनन्द की अनुभूति किया जो आज भी साधक साधनाभ्यास करते तथा शान्ति और आनन्द रूप आत्मनन्द या ब्रह्मानन्द की उपलब्धि करते हैं । इस प्रकार शान्ति और आनन्द कल्याण रूप होता है और शिव का अर्थ भी कल्याण ही होता है तथा शंकर जी ने सोऽहँ-ह ँ्सो को अपना ही यथार्थ रूप भी कहा था जिसमें शंकर जी के अनुयायीगण सोऽहँ-ह ँ्सो के स्थान पर शिवोऽहँ का जप गुरु-भक्ति के कारण करने लगे, जबकि शंकर जी ने भी सोऽहँ-ह ँ्सो की जानकारी दी है, शिवोऽहँ की नहीं । एक सामान्य सिद्धान्त यह भी है कि जो व्यक्ति जिस पद्धति या विषय-वस्तु या सत्ता-शक्ति का शोध सर्वप्रथम करता है उसके नाम से भी वह शोधित-पद्धति या विषय-वस्तु या सत्ता-शक्ति उच्चारित होने लगती है या उसके काम से भी वह शोधित विषय-वस्तु समाज के बीच प्रचलित हो जाती है जैसा कि सोऽहँ-ह ँ्सो को शिवोऽहँ की उपाधि से भी विभूषित या घोषित होने लगा । पातञ्जलि तो बाद में हुये हैं शंकर ही आदि शोधकर्ता हैं । हालांकि सृष्टि के किसी भी विधान का आदि-अन्त परमब्रह्म या परमात्मा से ही तथा में ही होता है परन्तु परमात्मा की बात यहाँ पर नहीं की गई है, परमात्मा के पश्चात् शेष सारी सृष्टि की बात कही जा रही है । इस प्रकार शंकर जी से सिद्ध-समाधिस्थ योगी-ऋषि-महर्षि, देवी-देवता आदि में कोई नहीं है ।  इसलिये योग-साधना या अध्यात्म के क्रिया-प्रक्रिया या अनुभूति आदि की बात शंकर जी से किसी की भी टकरायेगी तो शंकर जी वाली बात या पद्धति ही श्रेष्ठ और प्रभावशाली मानी जाती है और जानी-जानी भी चाहिये परन्तु पूर्णावतारी इससे ऊपर या परे होता है ।
बहुत से बन्धुगण तो ऐसे होते हैं कि तात्त्विक तथा आध्यात्मिक शब्दों, पदों या ध्वनियों का हिन्दी अर्थ कर-करा कर मनमाना अर्थों में व्याख्या करते हुये, व्याकरण आदि से तोड़-मरोड़ कर अर्थ करने-कराने लगते हैं और अपने पर ही उनको सिद्ध या प्रमाणित करने लगते हैं । इसी का परिणाम आज का विकृत एवं भ्रष्ट समाज है । पृथ्वी का भाग्योदय होता है तो ज्ञानी-योगी होते हैं और भाग्य फरता है तो असुर ।

अयमात्मा ब्रह्म
सद्भावी आत्मव बन्धुओं ! अयमात्मा ब्रह्म से तात्पर्य यह आत्मा ब्रह्म हैसे है । आत्मा ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही ईश्वर; ईश्वर ही नूर है और नूर ही डिवाइन लाईट या दिव्य-ज्योति रूप सोल  (Soul) है परन्तु जानने योग्य बात तो यह है कि क्या सभी व्यक्तियों या जीवधारियों की शरीर आत्मा या ब्रह्म से युक्त तथा ब्रह्ममय ही है ? यदि हाँ, तो फिर इतनी अधिकाधिक संख्या में नास्तिकता क्यों ? जब सभी शरीरों से ब्रह्म ही कार्य कर रहा है तो इतनी अधिकाधिक मात्र में चोरी, लूट, डकैती, राहजनी, अपहरण, जोर-जुल्म, अत्याचार एवं घुसखोरी रूप भ्रष्टाचार आदि कहाँ से आ गया ? क्यों आ गया और ये सब करता है ? चारों तरफ हा-हा कार एवं त्राहिमाम्-त्राहिमाम् की गूँज क्यों मची है जो सबके हृदय को विदीर्ण कर रही है ऐसा क्यों ?
आत्मा या ब्रह्म की जानकारी एवं समझदारी इतनी आसान नहीं जितनी आज सामान्यतया लोग समझ बैठे हैं । यह बात तो सत्य है कि आत्मा ही ब्रह्म है परन्तु आत्मा वह नहीं है जिसको सामान्यतया लोग जान-समझ एवं कह सुन रहे हैं । जिस प्रकार किसी व्यक्ति या वस्तु विशेष की जानकारी एवं स्पष्टतः पहचान मात्र उसके दिखायी, देने पर ही आधारित नहीं होता है, उसकी यथार्थतः जानकारी एवं परिचय अत्यावश्यक होता है ठीक उसी प्रकार मात्र कुछ ज्योति मात्र का दर्शन कर लेना ही आत्म-दर्शन या ब्रह्म-दर्शन नहीं होता है । ऐसे बन्धुओं को क्या पता कि प×च पदार्थ-तत्त्वों का स्वरूप भी ज्योति रूप ही होता है जैसे पृथ्वी-तत्त्व का रूप पीली-ज्योति, जल-तत्त्व का सफेद, अग्नि-तत्त्व का लाल, वायु तत्त्व रेखांकित एवं आकाश वाली नीली रंग वाली ज्योति रूप में होती है । इस प्रकार ज्योति का निर्णय भी आत्म-ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म या दिव्य-ज्योति रूप ईश्वर का दरश-परश तो तब होगा जब निरन्तर योगाभ्यास या साधनाभ्यास के पश्चात् ही सम्भव है । हम लोग देख रहें हैं कि आज समाज बनने या अहंकार को कायम रखने में इतना जोर दे रहा है कि बनते-बनते ही बिगड़ गया है । जो जानकारी नहीं या जिसकी बिल्कुल ही अनुभूति या जिसके सम्बन्ध में थोड़ा भी बोध नहीं फिर भी अपने बड़प्पन को कायम रखने हेतु झूठ में ही जानकारी, अनुभूति एवं बोध आदि की लम्बी-लम्बी बातें करने मात्र मशगूल या मग्न रहते हैं । ऐसे लोग समझते हैं कि हम दूसरे को खूब धोखा दे रहे या खूब फंसाये हैं परन्तु उनको कौन समझावें कि जानकारी, अनुभूति एवं बोध के बगैर वे खुद फंसे हुये हैं । वास्तव में किसी विषय-वस्तु की नाजानकारी एवं नासमझदारी मूर्खता नहीं होती है बल्कि नाजानकारी एवं नासमझदारी के बावजूद भी जानकार एवं समझदार बनना मूर्खता है ।
आज समाज में चारो तरफ दो प्रकार के आत्मज्ञानी या ब्रह्मज्ञानी छाये हुये हैं । एक तो शास्त्रीय-ब्रह्मज्ञानी तथा दूसरे योग-साधना या अध्यात्म वाले आत्मज्ञानी । परन्तु दोनों में से किसी से भी पूछ दिया जाय कि आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान में कोई अन्तर है तो दोनों वर्ग एक स्वर से कह उठेगा कि कोई अन्तर नहीं है, कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही है और इस पर लच्छेदार प्रवचन भी कर सकते हैं, परन्तु उन दोनों वर्गों के बन्धुओं को कौन समझावे कि दोनों-- आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान में बहुत अन्तर है । यह भी सत्य ही है कि ब्रह्म और आत्मा एक ही है फिर भी दोनों जानकारी एवं कथन में विशेष अन्तर होता है जैसे-- ब्रह्म तब तक ही ब्रह्म है जब तक कि दरश-परश में नहीं आ रहा है, दरश पाने में आते ही ब्रह्म आत्मा के रूप में मिलता एवं दिखलायी देता है । 
दूसरे शब्दों में आत्मा ही तब तक ब्रह्म रूप में जानी जाती है जब तक कि यथार्थतः जानने, देखने और मिलने में नहीं आ जाता है । अर्थात् आत्मा की नाजानकारी एवं नासमझदारी में ब्रह्म कहलाता है तथा जानकारी, दर्शन एवं मिलन में आने वाला ब्रह्म ही आत्मा कहलाता है । ब्रह्म कहना नाजानकारी एवं नासमझदारी का द्योतक है तथा ब्रह्म को आत्मा ही कहना जानकारी एवं समझदारी का द्योतक है । ब्रह्म कहने में अस्पष्टता एवं अप्राप्ति तथा आत्मा कहने में स्पष्टता एवं प्राप्ति का संकेत देता है ।
आत्मा वाले आध्यात्मिक सन्त-महात्मन् महानुभावों ने खुद ही आत्मा की यथार्थ गरिमा को समाप्त करने का रास्ता खोल दिया, हालांकि मैं उनका भी विशेष दोष क्या दूँ क्योंकि आत्मा की उत्पत्ति तथा लय को, तो वे भी नहीं जानते हैं, इसीलिये भ्रम-वश ऐसा कर बैठते हैं । भ्रमवश ये लोग भी जीव को ही आत्मा तथा आत्मा को परमब्रह्म या परमात्मा समझकर ब्रह्म कह-कह कर अपनी गरिमा बढ़ाने और कायम करने में लग जाते हैं जिससे अपनी गरिमा कुछ समय विशेष के लिये तो अवश्य ही बढ़ जाती है परन्तु अन्ततः परमब्रह्म या परमात्मा के पूर्णावतार रूप अवतारी द्वारा ऐसा घसीट दिये जाते हैं कि यथार्थतः जो होना और रहना चाहिये, वह भी नहीं हो पाते हैं और न रह ही पाते हैं क्योंकि पूर्णावतारी सत्ता सत्य कहने तथा यथार्थता को समाज को जनाने, बताने, दिखाने, समझाने तथा मेल-मिलाप करते हुये पहचान कराने मात्र के लिये ही अपने दिव्य आकाश रूप परमधाम या अमरलोक से भू-मण्डल पर आता है । कुछ अंशावतारी बन्धुओं को जीव-आत्मा-परमात्मा की पृथक्-पृथक् अनुभूति या आभास होने पर जीव को अहंकार कह कर अलग कर देते हैं जबकि जीव ही अहंकार और जिसको वे आत्मा समझते हैं वही जीव तथा उनका ब्रह्म ही आत्मा है ।
सद्भावी आत्मवत् बन्धुओं ! ब्रह्मज्ञान तथा आत्मज्ञान और तत्त्वज्ञान तीनों की यथार्थता को जब पृथक्-पृथक् रूप में स्पष्टतः जान, देख और समझते हुये पहचान लिया जायेगा तब न तो कोई (विषय-वस्तु) जानने को बाकी रह जायेगी और न किसी से वार्तालाप करने में कोई गड़बड़ी होगी । शास्त्रों आदि सद्ग्रन्थों के माध्यम से जीव, आत्मा, परमात्मा अथवा जीव, ब्रह्म, परमब्रह्म अथवा जीव, ईश्वर, परमेश्वर अथवा रुह, नूर, अल्लातआला अथवा सेल्फ, सोल, गाॅड के सम्बन्ध में अस्पष्ट एवं अनुमान परक जानकारी एवं समझदारी तो ब्रह्मज्ञान है यानी ब्रह्मज्ञान कहलायेगा तथा योग-साधना या अध्यात्म के क्रिया-प्रक्रिया (अजपा-जप एवं ध्यान) आदि द्वारा अनुभूति परक जीव, आत्मा अथवा जीव, ब्रह्म अथवा जीव, ईश्वर अथवा जीव, शक्ति अथवा  रुह, नूर अथवा सेल्फ, सोल आदि का दरश-परश के साथ आपसी (एक-दूसरे से) मिलने में होने वाली जानकारी आत्मज्ञान है या आत्मज्ञान कहलायेगा; और परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा के पूर्णावतार रूप अवतारी शरीर द्वारा तत्त्वज्ञान पद्धति के मरध्यम से सत्य-स्पष्ट एवं यथार्थ जानकारी अनुभूति एवं बोध के साथ ही जीव, आत्मा, परमात्मा अथवा रूह, नूर, अल्लातआला अथवा सेल्फ-सोल-गाॅड की परिपूर्णतः सैद्धान्तिक, प्रायौगिक एवं व्यावहारिक जानकारी ही तत्त्वज्ञान है या तत्त्वज्ञान कहलायेगा ।
सद्भावी बन्धुओं ! अन्ततः स्पष्ट कर दूँ कि जो व्यक्ति योग-साधना या अध्यात्म के माध्यम से अपने जीव को आत्मा से मिलाकर आत्मामय बना लिया है मात्र वही अयमात्मा ब्रह्म कहने का हकदार है । ज्ञानी एवं साधक के अतिरिक्त शेष सभी शरीर जीव चालित है ।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म
सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! सर्वं खल्विदं ब्रह्म से तात्पर्य जो कुछ भी है सब कुछ ब्रह्म ही हैसे है । सृष्टि की उत्पत्ति ज्योति रूप आत्मा या आत्म-शक्ति से ही हुई है तथा कारण रूप से देखा जाय तो सृष्टि की सभी विषय-वस्तु ही जड़-चेतन से ही उत्पन्न तथा आत्मशक्ति से युक्त ही है । सजीव या जीवधारी आत्मा से उत्पन्न तथा युक्त निर्जीव वस्तुयें शक्ति से उत्पन्न तथा शक्ति से युक्त रहती है । चूँकि आत्म-शक्ति ही ब्रह्म-शक्ति या ब्रह्म-शक्ति ही आत्म-शक्ति है और आत्म-शक्ति से ही सारी सृष्टि की उत्पत्ति और चालन क्रिया भी होती है । इसलिये सर्वखल्विदं ब्रह्मउचित उचित ही है परन्तु यह सबके लिये कहने की बात भी नहीं है । जो आत्मा या ब्रह्म की जानकारी अनुभूति के साथ ही कर लिया हो मात्र उसी के द्वारा यह कहना उचित होगा, अन्यथा जो जानकार न हो या शास्त्रीय-अध्ययन आदि के माध्यम से अनुमान परक जानकारी भी हो परन्तु अनुभूति न हो, उसका सर्वं खल्विदं ब्रह्म कहना अनुचित तो है ही; गलती करने को बलवती उत्प्रेरणा उसके अन्दर होती रहती है क्योंकि धार्मिक, शाक्तिक तथा नैतिकता का भय उसके अन्दर नहीं रहता परन्तु अनुभूति परम आत्म-शक्ति का जानकार के अन्दर आत्म-शक्ति से सीधे ही ऐसी शान्ति और आनन्द की उपलब्धि होती है कि निरन्तर योगाभ्यासी या साधनाभ्यासी के अन्दर किसी प्रकार की गलती करने की उत्प्रेरणा नहीं होती है । साधना रहित ब्रह्मज्ञानी यथार्थतः ब्रह्मज्ञानी नहीं होता है अपितु वह भ्रम-ज्ञानी या मिथ्याहंकार वाली ज्ञानी होता है उसे ब्रह्म या आत्मा के विषय में स्पष्ट जानकारी तो होती नहीं मात्र कहने के लिये वह ब्रह्मज्ञानी होता है, वास्तविक नहीं ।
सद्भावी बन्धुओं ! जैसा कि सर्वविदित ही है कि सम्पूर्ण विश्व ही आज दो पद्धतियों में संचालित माना जा रहा है तथा चालित है । वे दो भौतिक या वैज्ञानिक पद्धति तथा आध्यात्मिक या अध्यात्म-विज्ञान पद्धति है । इसमें वैज्ञानिक पद्धति जड़-तत्त्व या जड़-विभाग की पद्धति है और आध्यात्मिक पद्धति चेतन-तत्त्व या चेतन आत्मा या चेतन-विभाग की पद्धति है । जड़-विभाग शक्ति प्रधान तथा चेतन-विभाग आत्मा प्रधान होता है । अत्याधुनिक वैज्ञानिक शोधों ने स्पष्ट कर दिया है कि ध्वनि और प्रकाश’ (Sound and Light) ही शक्ति है तथा आदि काल से वर्तमान कालिक समस्त योगवेत्ता या अध्यात्मवेत्ता एक स्वर से घोषित किये हैं और घोषित कर भी रहे हैं कि सोऽहँ-ह ँ्सो-शब्द या नाम एवं आत्म-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या डिवाइन लाईट या नूरे इलाही या आसमानी रौशनी या चाँदना ही आत्मा या ब्रह्म या ईश्वर या सोल या इलाही का रूप है । यानी ध्वनि और प्रकाश शक्ति का नाम रूप तथा शब्द और स्वयं-ज्योति आत्मा का नाम-रूप है । अर्थात् विज्ञान भी सारी सृष्टि को ध्वनि और प्रकाश का ही भिन्न-भिन्न परिवर्तित रूप घोषित कर रहा है और अध्यात्म भी जड़-चेतन रूप सकल (सम्पूर्ण) सृष्टि को आत्म-ज्योति रूप आत्म-शक्ति का ही भिन्न-भिन्न रूप घोषित कर रहा है । अतः दोनों पद्धतियों द्वारा ही एक स्वर से सारी सृष्टि को ध्वनि और प्रकाश तथा आत्मशब्द और स्वयं-ज्योति रूप का ही परिवर्तित रूप घोषित हो रहा है और आत्मा या ब्रह्म ही आत्म-ज्योति शब्द-रूप है । अतः सर्वं खल्विदं ब्रह्म सत्य ही है परन्तु मात्र उन्हीं के द्वारा यह कथन सत्य है जो प्रयोग या अनुभूति वाले हैं ।


सम्पर्क करें

परमतत्त्वम् धाम आश्रम
B-6, लिबर्टी कालोनी, सर्वोदय नगर, लखनऊ
फोन न॰ - 9415584228, 9634481845
Email- bhagwadavatari@gmail.com

Total Pageviews